विफल-सी हो जाती है ...आपाधापी की इस दौड़ में
कई बार असहजता का आभास होने लगता है । कहीं तो
सन्दर्भ नही मिल पाते , कहीं समीकरण उलझे हुए
मिलते हैं । कहीं कोई व्यथित मन संवाद-हीनता का
दंश झेलता है , कहीं कुछ कुंठा-ग्रस्त भावनाएं
कोहराम की स्थिति बना देती हैं .....
आज ग़ज़ल की जगह एक कविता लेकर हाज़िर हो
रहा हूँ । बस ! हृदयोदगार है, बाक़ी सब आप पर छोड़ता हूँ । ।
कविता
कैसी कैसी बंदिशों में पल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर जल रहा है आदमी
आधुनिकता की चरम सीमा से भी बढ़ता हुआ
भोग की, उपभोग की लपटों से है झुलसा हुआ
फिर भी मन-दर्पण में अपने-आप से सहमा हुआ
वास्तविकता की चुभन, बेकल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . .
कर्म करके सोचता है, अब मिलेंगे दाम क्या ?
पूछता है हर घड़ी , मेरा कहीं है नाम क्या ?
है पता सब को कि होगा आखिरी परिणाम क्या !
जाने फिर क्यूं अब स्वयं को छल रहा है आदमी
कर्म करके सोचता है, अब मिलेंगे दाम क्या ?
पूछता है हर घड़ी , मेरा कहीं है नाम क्या ?
है पता सब को कि होगा आखिरी परिणाम क्या !
जाने फिर क्यूं अब स्वयं को छल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . .
भूल जाओगे अगर पुरखों के तुम उपदेश को
दूर ही करते रहोगे, ख़ुद से इस परिवेश को
क्यूं भला क़ुदरत करेगी माफ़ झूठे वेश को
किस दिशा की ओर जाने चल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . . . . .
कैसी कैसी बंदिशों में पल रहा है आदमी
जल रहा है, क्यूं निरंतर जल रहा है आदमी
भूल जाओगे अगर पुरखों के तुम उपदेश को
दूर ही करते रहोगे, ख़ुद से इस परिवेश को
क्यूं भला क़ुदरत करेगी माफ़ झूठे वेश को
किस दिशा की ओर जाने चल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . . . . .
कैसी कैसी बंदिशों में पल रहा है आदमी
जल रहा है, क्यूं निरंतर जल रहा है आदमी