ये ग़ज़ल एक अनोखी रचना है..."अदबी-माला" पत्र में छपने के बाद
इसी के ज़रिये एक दोस्त बना ....मिठू जान...एक... वरिष्ठ श्रेणी
का साहित्यकार...आज भी दोस्त ही है ..एक अच्छा दोस्त ।
कोई कोई रचना अपने आप में कब कया अनूठा दे जाए ...कया पता !!
ग़ज़ल
इब्तिदाए-इश्क़ की राना`इयाँ
इंतिहा- ऐ- शौक़ की रुसवाईयाँ
यूँ रहीं ग़म की करम-फर्माईयाँ
मैं हूँ अब अर् हैं मेरी तन्हाईयाँ
धूप यादों की बढ़ी यूँ दिन ढले
और भी लम्बी हुईं परछाईयाँ
हैं यहाँ खुशियाँ, तो ग़म भी साथ हैं
है कहीं मातम, कहीं शहनाईयाँ
याद आतीं हैं मुझे परदेस में
गाँव , झूले , झूमती अमराईयाँ
रात से कहती हैं क्या, मिल कर गले
चाहतें , मदहोशियाँ , अँगड़ाइयां
तज्रबोँ से उम्र का रिश्ता बढ़ा
अब समझ आने लगीं गहराईयाँ
ज़िन्दगी भर नाज़ ही सहने पड़े
थीं मुक़ाबिल वक़्त की अंगडाईयाँ
अजनबी लगने लगे अपना वुजूद
इस क़दर अच्छी नहीं तन्हाईयाँ
मैं , कि अब ख़ुद को कहाँ ढूँढू बता
जाम -ऐ -शिद्दत, कर अता गहराईयाँ
साफ़-गोई से मिला 'दानिश' को क्या
बेबसी , आवारगी , रुसवाईयाँ ।
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Tuesday, May 26, 2009
Saturday, May 9, 2009
इधर-उधर की भाग-दौड़ , अफरा-तफरी , और कुछ मुश्किलों में
घिरे रहने के बाद अचानक याद आया कि कुछ लिखना भी तो है ,,
सो ....कोई लम्बी भूमिका नही, बस कुछ सरल-सीधे-से लफ्ज़
एक ग़ज़ल की शक़्ल में हाज़िर करता हूँ
ग़ज़ल
बारहा कयूं उलझती रही ज़िन्दगी
उम्र भर मुझ से लड़ती रही ज़िन्दगी
बालपन से जवानी , बुढापे तलक
नाम अपने बदलती रही ज़िन्दगी
याद की तितलियाँ रक़्स करती रहीं
फूल बन कर महकती रही ज़िन्दगी
लाख तूफ़ान आयें , उठें ज़लज़ले
काम चलना है , चलती रही ज़िन्दगी
एक छूटा बदन , दूसरा मिल गया
सिर्फ़ पैकर बदलती रही ज़िन्दगी
घर के आँगन में नन्ही-सी किलकारियां
मन के झूले में पलती रही ज़िन्दगी
कोख अपनी ही माँ की, बनी कत्लगाह
जन्म से पहले मरती रही ज़िन्दगी
इसको जब भी कहीं कोई 'दानिश' मिला
अपने तेवर बदलती रही ज़िन्दगी
________________________________
बारहा= बार-बार
रक्स =नृत्य
ज़लज़ला= भूचाल
पैकर= आकृति , शरीर
कत्लगाह=वध-स्थल
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घिरे रहने के बाद अचानक याद आया कि कुछ लिखना भी तो है ,,
सो ....कोई लम्बी भूमिका नही, बस कुछ सरल-सीधे-से लफ्ज़
एक ग़ज़ल की शक़्ल में हाज़िर करता हूँ
ग़ज़ल
बारहा कयूं उलझती रही ज़िन्दगी
उम्र भर मुझ से लड़ती रही ज़िन्दगी
बालपन से जवानी , बुढापे तलक
नाम अपने बदलती रही ज़िन्दगी
याद की तितलियाँ रक़्स करती रहीं
फूल बन कर महकती रही ज़िन्दगी
लाख तूफ़ान आयें , उठें ज़लज़ले
काम चलना है , चलती रही ज़िन्दगी
एक छूटा बदन , दूसरा मिल गया
सिर्फ़ पैकर बदलती रही ज़िन्दगी
घर के आँगन में नन्ही-सी किलकारियां
मन के झूले में पलती रही ज़िन्दगी
कोख अपनी ही माँ की, बनी कत्लगाह
जन्म से पहले मरती रही ज़िन्दगी
इसको जब भी कहीं कोई 'दानिश' मिला
अपने तेवर बदलती रही ज़िन्दगी
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बारहा= बार-बार
रक्स =नृत्य
ज़लज़ला= भूचाल
पैकर= आकृति , शरीर
कत्लगाह=वध-स्थल
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