पिछले दिनों आदरणीय श्री पंकज सुबीर जी केब्लॉग पर
एक तरही मिसरा मश्क़ के लिये दिया गया था,,
"नए साल में नए गुल खिलें, नयी खुशबुएँ नए रंग हों"
मिसरा अपने आप में बहुत अनूठा रहा, मन में समा जाने वाला..
इसी मिसरे को लेकर कुछ शेर हो गये हैं
जो आप सब की खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ.......
ग़ज़ल
हों बुझे-बुझे, कि खिले-खिले, वो बने रहें, या कि भंग हों
तेरी सोच के सभी सिलसिले, तेरे अपने मन की तरंग हों
तेरी ज़िंदगी, हो वो ज़िंदगी, जो किसी के काम भी आ सके
तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग हों
है पड़ोसी वो, तो भले पड़ोसी का फ़र्ज़ भो तो निभाए वो
न करे कुछ ऐसी वो हरक़तें, जो हमेशा बाईस-ए-जंग हों
यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों
यूँ फ़रोग़-ए-इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल
यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, न रदीफ़-ओ-क़ाफ़िये तंग हों
मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों
चलो 'दानिश' अब ये दुआ करें , हों सभी दिलों में ये ख्वाहिशें
हो कोई भी दुःख, सभी साथ हों, हो कोई ख़ुशी, सभी संग हों
----------------------------------------------------------
प्रसंग=चर्चे/वार्तालाप
बाईस-ए-जंग=युद्ध/झगड़े का कारण
फरोग-ए-इल्म=ज्ञान वृद्धि/विद्या प्रसार
रदीफ़-ओ-क़ाफिये=ग़ज़ल की व्याकरण से सम्बंधित घटक
(तुकांत इत्यादि)
अनंग=देह रहित/बिना श़क्ल
---------------------------------------------------------
Saturday, February 19, 2011
Tuesday, February 1, 2011
पिछ्ला बहुत सारा वक़्त साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती-सुमन'
के ग़ज़ल विशेषांक की देख रेख में ही गुज़रा,,,
इस दौरान दोस्तों का सहयोग , शमूलियत और शिकायतें
सब साथ साथ रहे... विशेषांक, अपने पाठकों तक पहुँच रहा है
आप चाहें, तो डॉ आनंद सुमन सिंह (मुख्य सम्पादक) से
०९४१२०-०९००० पर संपर्क करके उसे हासिल कर सकते हैं।
आपकी खिदमत में एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ .....
ग़ज़ल
शिकायत भी, तकल्लुफ़ भी, बहाना भी
मुझे, मन्ज़ूर है उसका सताना भी
मुसलसल इम्तेहाँ , बेचैनियाँ पल-पल
न रास आया हमें दिल का लगाना भी
बिना मतलब मेरी तनक़ीद कर-कर के
मुझे वो चाहता है आज़माना भी
नयापन आज का, माना, ज़रूरी है
सुख़न में चाहिए लहजा पुराना भी
हमेशा हम निभाएं तौर दुनिया के ?
कभी सोचे तो आख़िर कुछ ज़माना भी
यक़ीनन, मैं उसे महसूस करता हूँ
कभी ज़ाहिर, कभी कुछ ग़ायबाना भी
हमेशा ज़िन्दगी से इश्क़ फ़रमाया
मिज़ाज अपना रहा कुछ शायराना भी
बुरा वक़्त आये, तो देना जवाब ऐसे
उदास आँखों से 'दानिश' मुस्कराना भी
------------------------------------------
तकल्लुफ़=औपचारिकता
मुसलसल=लगातार, निरंतर
तनक़ीद=आलोचना, टीका-टिप्पणी
सुख़न=काव्य-प्रक्रिया, वार्ता
तौर=शैली, पद्वति
ज़ाहिर=स्पष्टत:, प्रकट
ग़ायबाना=अस्पष्ट, अनुपस्थित
मिज़ाज=स्वभाव
-----------------------------------------------------------
के ग़ज़ल विशेषांक की देख रेख में ही गुज़रा,,,
इस दौरान दोस्तों का सहयोग , शमूलियत और शिकायतें
सब साथ साथ रहे... विशेषांक, अपने पाठकों तक पहुँच रहा है
आप चाहें, तो डॉ आनंद सुमन सिंह (मुख्य सम्पादक) से
०९४१२०-०९००० पर संपर्क करके उसे हासिल कर सकते हैं।
आपकी खिदमत में एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ .....
ग़ज़ल
शिकायत भी, तकल्लुफ़ भी, बहाना भी
मुझे, मन्ज़ूर है उसका सताना भी
मुसलसल इम्तेहाँ , बेचैनियाँ पल-पल
न रास आया हमें दिल का लगाना भी
बिना मतलब मेरी तनक़ीद कर-कर के
मुझे वो चाहता है आज़माना भी
नयापन आज का, माना, ज़रूरी है
सुख़न में चाहिए लहजा पुराना भी
हमेशा हम निभाएं तौर दुनिया के ?
कभी सोचे तो आख़िर कुछ ज़माना भी
यक़ीनन, मैं उसे महसूस करता हूँ
कभी ज़ाहिर, कभी कुछ ग़ायबाना भी
हमेशा ज़िन्दगी से इश्क़ फ़रमाया
मिज़ाज अपना रहा कुछ शायराना भी
बुरा वक़्त आये, तो देना जवाब ऐसे
उदास आँखों से 'दानिश' मुस्कराना भी
------------------------------------------
तकल्लुफ़=औपचारिकता
मुसलसल=लगातार, निरंतर
तनक़ीद=आलोचना, टीका-टिप्पणी
सुख़न=काव्य-प्रक्रिया, वार्ता
तौर=शैली, पद्वति
ज़ाहिर=स्पष्टत:, प्रकट
ग़ायबाना=अस्पष्ट, अनुपस्थित
मिज़ाज=स्वभाव
-----------------------------------------------------------
Subscribe to:
Posts (Atom)