Saturday, March 28, 2009

कभी कभी मन की सोच उड़ान भरने के प्रयास में
विफल-सी हो जाती है ...आपाधापी की इस दौड़ में
कई बार असहजता का आभास होने लगता है । कहीं तो
सन्दर्भ नही मिल पाते , कहीं समीकरण उलझे हुए
मिलते हैं । कहीं कोई व्यथित मन संवाद-हीनता का
दंश झेलता है , कहीं कुछ कुंठा-ग्रस्त भावनाएं
कोहराम की स्थिति बना देती हैं .....


आज ग़ज़ल की जगह एक कविता लेकर हाज़िर हो
रहा हूँ । बस ! हृदयोदगार है, बाक़ी सब आप पर छोड़ता हूँ । ।



कविता

कैसी कैसी बंदिशों में पल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर जल रहा है आदमी


आधुनिकता की चरम सीमा से भी बढ़ता हुआ
भोग की, उपभोग की लपटों से है झुलसा हुआ
फिर भी मन-दर्पण में अपने-आप से सहमा हुआ
वास्तविकता की चुभन, बेकल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . .

कर्म करके सोचता है, अब मिलेंगे दाम क्या ?
पूछता है हर घड़ी , मेरा कहीं है नाम क्या ?
है पता सब को कि होगा आखिरी परिणाम क्या !

जाने फिर क्यूं अब स्वयं को छल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . .

भूल जाओगे अगर पुरखों के तुम उपदेश को
दूर ही करते रहोगे, ख़ुद से इस परिवेश को
क्यूं भला क़ुदरत करेगी माफ़ झूठे वेश को
किस दिशा की ओर जाने चल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . . . . .

कैसी कैसी बंदिशों में पल रहा है आदमी
जल रहा है, क्यूं निरंतर जल रहा है आदमी

Thursday, March 12, 2009

नमस्कार !
आने में कुछ देर हो गई .....वजह जो भी रही हो, अब जो भी कहूँगा
वो एक बहाना ही लगेगा .......
सब से बड़ा दुश्मन ये कंप्यूटर जिसमे 'हिन्दी में काम'
इसी की मर्ज़ी से ही हो पाता है ।
खैर ! एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ .......
आपकी टिप्पणियाँ हमेशा-हमेशा "प्रेरणा" और "प्रोत्साहन" देती रहेंगी ,
इस का विश्वास है मुझे । . . . . . . .


ग़ज़ल

नाम जब भी आ गया उसका ज़बां पर
फिर कहाँ क़ाबू रहा अश्के - रवां पर

आज भी उस मोड़ पर तनहा खडा हूँ
साथ छोड़ा था मेरा तूने जहाँ पर

वक़्त ने मुझ से सवाल ऐसे किए हैं
एक ख़ामोशी लरज़ती है ज़बां पर

माँगना सब के लिए दिल से दुआएं
कौन जाने , कौन मिल जाए कहाँ पर

दर-हकीक़त दर्द से रिश्ता निभाया
कर लिया दिल ने यकीं जब भी गुमां पर

बर्क़ ! तू लहरा ! ज़रा तो रौशनी दे
क्यूँ नज़र रहती तेरी है आशियाँ पर

कामयाबी अब उसे मिल कर रहेगी
वो नज़र रक्खे हुए है आसमाँ पर

बागबाँ करते हैं ख़ुद कलियों का सौदा
वक़्त कैसा आ पड़ा है गुलसितां पर

मैकशी भी अब दगा देने लगी है
ये सितम इक और जाने-नातवाँ पर

बे-अदब , बे-रब्त , कोई सरफिरा है
तब्सिरा उनका है मेरी दास्ताँ पर

आज फिर इक शख्स सूली पर चढ़ेगा
हैं ख़फ़ा कुछ लोग 'दानिश' के बयाँ पर



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अश्के-रवां= बहते आंसू
बर्क़= आसमानी बिजली
मैकशी=sharaab pina
dagaa=dhokha
जाने-नातवाँ= कमज़ोरजान
बे-अदब=अशिष्ट
बे-रब्त=बे-तुका
तब्सिरा=टिप्पणी
दास्ताँ=कहानी
गुमां=शंका



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