Wednesday, October 5, 2011

नमस्कार
पिछले माह राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किये गये
हिंदी-दिवस समारोह के सिलसिले में
श्रीनाथद्वारा , उदयपुर (राजस्थान) जाने का अवसर प्राप्त हुआ
देश के विभिन्न प्रान्तों से साहित्यकारों, समआलोचकों, ग़ज़लकारों ,
पत्रकारों इत्यादि ने अपने अनुपम और उपयोगी विचारों से
सभी साहित्य प्रेमियों के ज्ञान में अपार वृद्धि की.
साहित्य-मंडल, नाथद्वारा और हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा
कुछ प्रमुख साहित्यकारों को पुरस्कृत अलंकृत भी किया गया .
लेकिन क्या यह सम्मान अपना उचित सम्मान पा भी रहे हैं ...
कुछ ऐसी ही दशा इस काव्य में ..........



आख़िर . . .


आखिर....
बता ही दिया गया उसे
कि यह सब ठीक नहीं
बेकार ही है यह सब
सो ,
उतरवा दिए जाने चाहियें
दीवारों पर सजे सब सम्मान-पत्र
हटा दीं जानी चाहियें
शेल्फ में रक्खीं विभिन्न ट्राफियाँ
समेट दिए जाने चाहियें
ड्राईंग रूम में लटकते कुछ अलंकार-मैडल
रख दिए जाने चाहियें कहीं और ही
टेबुल पर बिखरे कुछ साहित्य नुमा पन्नें ...
.... .... ............
आवाज़ें , ज़ोर पकडती रहीं
आँखें , निरीह तकती रहीं
और
कुछ उपयोगी दिमाग़
बस इतना बुदबुदा ,
शांत हो गए ...
"आख़िर,, बच गया घर ,
..... इक अजायब-घर होने से"


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