Tuesday, April 12, 2011

नमस्कार
इस बार फिर वक़्त के इस बड़े फासले को मैं मिटा नहीं पाया
पता नहीं कैसे, दूरियों और मजबूरियों में इक अजब-सा रिश्ता पनप उठता है
इस बीच आप सब मित्रों को पढ़ते रहना तो होता ही रहा
लीजिये... एक ग़ज़ल आपकी खिदमत में हाज़िर करता हूँ


ग़ज़ल


ख़ुशी में , ख़ुशी से गुज़र हो गई
नहीं ग़म , अगर आँख तर हो गई

किसी की नज़र हमसफ़र हो गई
बड़ी खुशनुमा रहगुज़र हो गई

उसे ही मिले ज़िंदगी के निशाँ
ख़ुद अपनी जिसे कुछ ख़बर हो गई

शराफ़त तो है इक कमी आजकल
मगर जालसाज़ी, हुनर हो गई

ग़म ए यार मेहमाँ हुआ रात-भर
'ज़रा आँख झपकी, सहर हो गई'

बशर, दायरों में ही बँटता गया
नज़र , हर नज़र , कम-नज़र हो गई

बस इक आरज़ू थी , बस इक इंतज़ार
हयात इस क़दर मुख़्तसर हो गई

भुला दूँ उसे, जब ये मांगी दुआ
न फ़रियाद क्यूँ बे-असर हो गई

कभी कुछ दिलासे , कभी कुछ भरम
बस ऐसे ही 'दानिश' बसर हो गई


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आँख तर = भीगी हुई आँखें
हयात = ज़िंदगी
मुख़्तसर = संक्षिप्त , (यहाँ) सिमट चुकी
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