नव वर्ष - २०११ का आगमन है
दिल की गहराईयों से भगवान् जी से प्रार्थना है
कि आने वाला साल आप सब के लिये
ढेरों ढेरों खुशियाँ लेकर आये ....
दुनिया में इंसानियत का परचम हमेशा बलंद रहे ...आमीन ..
दुआओं के लिये अलफ़ाज़ वही... पढ़े / सुने-से .....
नयी दस्तक , नए आसार , ओ साथी
सँवर जाने को हैं तैयार , ओ साथी
नया साल आये , तो, ऐसा ही अब आये
मने, हर दिल में इक त्यौहार , ओ साथी
हर इक आँगन में महकें आस के बूटे
सजे ख़ुशबू से हर घर-द्वार , ओ साथी
चलो, नफ़रत का हर जज़्बा मिटा कर हम
मुहोब्बत का करें इज़हार , ओ साथी
करें कोशिश यही, हर ख़्वाब हो पूरा
मिले हर सोच को आकार , ओ साथी
करें 'दानिश' यही अब प्रार्थना मिल कर
चमन अपना रहे गुलज़ार , ओ साथी
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आप सब को नव वर्ष २०११ के लिये ढेरों मंगल कामनाएँ
"दानिश" भारती
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Friday, December 31, 2010
Friday, December 10, 2010
किसी भी तरह से, कोई भूमिका ज़हन में नहीं आ रही है
कुछ 'यूं-ही-सी' व्यस्तताएं , कुछ
एक साहित्यिक पत्रिका "सरस्वती-सुमन" (देहरादून) के
'ग़ज़ल-विशेषांक' के अथिति-सम्पादन का जोखिम भरा कार्य ,,,
बस, ये सब मिल कर ही इम्तेहान लेने पर तुले हैं ...
ख़ैर ,,, आज एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ ....
ग़ज़ल
रहता नहीं है दिल में वो मेहमान आजकल
मेरी तरह, है वो भी परेशान आजकल
ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल
फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल
तेरी निगाह-ए -मस्त के मुहताज हैं सभी
समझा , कि क्यों है मैकदा वीरान आजकल
वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल
माहौल पुरखतर है, कि बीमार ज़ेहन हैं
गुम है सभी के होटों से मुस्कान आजकल
अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल
मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल
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तरक्क़ी-याफ्ता = उन्नत / विकसित मानव
निगाह-ए-मस्त = मस्त आँखें
ज़ीस्त = ज़िन्दगी / जीवन
उनवान = शीर्षक / उद्देश्य
ज़ेहन = सोच / मानसिकता
अना = स्वाभिमान
मुआविज़ा = क़ीमत / वुसूली
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कुछ 'यूं-ही-सी' व्यस्तताएं , कुछ
एक साहित्यिक पत्रिका "सरस्वती-सुमन" (देहरादून) के
'ग़ज़ल-विशेषांक' के अथिति-सम्पादन का जोखिम भरा कार्य ,,,
बस, ये सब मिल कर ही इम्तेहान लेने पर तुले हैं ...
ख़ैर ,,, आज एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ ....
ग़ज़ल
रहता नहीं है दिल में वो मेहमान आजकल
मेरी तरह, है वो भी परेशान आजकल
ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल
फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल
तेरी निगाह-ए -मस्त के मुहताज हैं सभी
समझा , कि क्यों है मैकदा वीरान आजकल
वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल
माहौल पुरखतर है, कि बीमार ज़ेहन हैं
गुम है सभी के होटों से मुस्कान आजकल
अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल
मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल
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तरक्क़ी-याफ्ता = उन्नत / विकसित मानव
निगाह-ए-मस्त = मस्त आँखें
ज़ीस्त = ज़िन्दगी / जीवन
उनवान = शीर्षक / उद्देश्य
ज़ेहन = सोच / मानसिकता
अना = स्वाभिमान
मुआविज़ा = क़ीमत / वुसूली
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