नमस्कार
कविताएँ आप ने पढीं , पसंद फरमाईं ....शुक्रिया !
आप सब मुझ से बेहतर जानते हैं कि कविता लिखना या
ग़ज़ल कहना मन में कहीं गहरे उतर कर ख़ुद से बात करना है ।
मैं जब आप जैसे क़ाबिल दोस्तों के ब्लॉग पर जा कर आपकी
उम्दा रचनाएं पढता हूँ तो मुझे उतना ही सुकून मिलता है ,
जितना किसी रचनाकार को अपनी रचना प्रक्रिया के वक्त मिलता
है ...आपकी कविताएँ , आलेख , ग़ज़लें पढ़ना हमेशा-हमेशा एक
अनुभव रहता है , नई ऊर्जा नई प्रेरणा मिलती है ........
लीजिये ! एक छोटी बहर की नन्ही-सी ग़ज़ल हाज़िरे खिदमत है ।
ग़ज़ल
हादिसों के साथ चलना है
ठोकरें खा कर संभलना है
मुश्किलों की आग में तप कर
दर्द के सांचों में ढलना है
हों अगर कांटे भी राहों में
हर घडी बे-खौफ चलना है
जो अंधेरों को निगल जाए
बन के ऐसा दीप जलना है
वक़्त की जो क़द्र भूले, तो
जिंदगी भर हाथ मलना है
हासिले-परवाज़ हो आसाँ
रुख हवाओं का बदलना है
इन्तेहा-ए-आरजू बन कर
आप के दिल में मचलना है
जिंदगी से दोस्ती कर लो
दूर तक जो साथ चलना है
रात भर तू चाँद बन 'दानिश'
सुब्ह सूरज-सा निकलना है ।
________________________________
Wednesday, April 22, 2009
Thursday, April 9, 2009
मुमकिन है कि आप सब विद्वान् रचनाकार , लेखक , अदब-नवाज़ दोस्त
यहाँ दस्तक दे कर कई बार वापिस चले जाते होंगे ....
अब खज़ाना कम है तो है ....मुफलिस हूँ... तो हूँ......
लेकिन एक वजह ये भी है कि कंप्यूटर पर बहुत कम बैठ पाता हूँ....
पिछली बार की कविता के बाद मन में फिर
जिद पनप उठी है कि एक कविता और आपकी खिदमत में पेश
करुँ....हो सकता है कहीं कुछ कम भी हो...लेकिन जब आप हैं तो
हौसला हो ही जाता है । .......
कविता
कुछ कम तो है .....
आज भी
रात के इस चुभते-से पहर में
अधलेटा-सा...... वह....
अपना बाज़ू अपने माथे पर टिकाए
फिर सोच रहा है ...
कुछ कम तो है कहीं ....
कहीं कुछ घट-सा गया है....
जिसे तलाशने की कोशिश
आज भी की थी उसने.....
दरवाजों पर लटकी बड़ी-बड़ी बेमाअना सी
झालरों के निष्प्राण रंगों में..
यहाँ वहाँ सजावट के लिए रक्खे
मंहगे-मंहगे बनावटी फूलों में..
एक-दम तीखे, शोख़ रंग-रोगन की ओट में
अपना खुरदरापन छिपाए हुए
बेजान दीवारों में...
इस कोने से उस कोने तक फैली-पसरी
खामोशी की बेजान परतों के आसपास..
और..... अपने-आप में ही सिमटे हुए
वैभव, आधुनिकता, और आडम्बर को ओढे
चलते-फिरते कुछ जिस्मों की हलचल में .....
क्या..... ?
क्या.... ? ?
इस घर से गुम हो चुके
एहसास और भावनाएं
अब इस मकान में वह कभी ढूँढ भी पायेगा भला ...?
सोचता है ....
फिर सोचता है.....
और फिर......... ...
रोज़ की तरह कर्वट बदल कर
सो जाने का बहाना करने लगता है .............
---------------------------------------------------------------
यहाँ दस्तक दे कर कई बार वापिस चले जाते होंगे ....
अब खज़ाना कम है तो है ....मुफलिस हूँ... तो हूँ......
लेकिन एक वजह ये भी है कि कंप्यूटर पर बहुत कम बैठ पाता हूँ....
पिछली बार की कविता के बाद मन में फिर
जिद पनप उठी है कि एक कविता और आपकी खिदमत में पेश
करुँ....हो सकता है कहीं कुछ कम भी हो...लेकिन जब आप हैं तो
हौसला हो ही जाता है । .......
कविता
कुछ कम तो है .....
आज भी
रात के इस चुभते-से पहर में
अधलेटा-सा...... वह....
अपना बाज़ू अपने माथे पर टिकाए
फिर सोच रहा है ...
कुछ कम तो है कहीं ....
कहीं कुछ घट-सा गया है....
जिसे तलाशने की कोशिश
आज भी की थी उसने.....
दरवाजों पर लटकी बड़ी-बड़ी बेमाअना सी
झालरों के निष्प्राण रंगों में..
यहाँ वहाँ सजावट के लिए रक्खे
मंहगे-मंहगे बनावटी फूलों में..
एक-दम तीखे, शोख़ रंग-रोगन की ओट में
अपना खुरदरापन छिपाए हुए
बेजान दीवारों में...
इस कोने से उस कोने तक फैली-पसरी
खामोशी की बेजान परतों के आसपास..
और..... अपने-आप में ही सिमटे हुए
वैभव, आधुनिकता, और आडम्बर को ओढे
चलते-फिरते कुछ जिस्मों की हलचल में .....
क्या..... ?
क्या.... ? ?
इस घर से गुम हो चुके
एहसास और भावनाएं
अब इस मकान में वह कभी ढूँढ भी पायेगा भला ...?
सोचता है ....
फिर सोचता है.....
और फिर......... ...
रोज़ की तरह कर्वट बदल कर
सो जाने का बहाना करने लगता है .............
---------------------------------------------------------------
Subscribe to:
Posts (Atom)