Sunday, May 23, 2010

नमस्कार
लग नहीं रहा था कि आज भी हाज़िर हो पाउँगा,,,
लेकिन वक़्त में कुछ पल ऐसे होते हैं जो ख़ुद पुकारने लगते हैं
"जो वाबस्ता हुए तुमसे, वो अफ़साने कहाँ जाते..."
ख़ैर... ज़िन्दगी के इम्तिहनात अपनी जगह, हालात की
मर्ज़ी अपनी जगह, और इंसान की सोच अपनी जगह ...
एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ.....





ग़ज़ल



बस्ती-बस्ती , सहरा-सहरा ले जाती है मुझ को
अब ख़ुद से मिलने की धुन भी तडपाती है मुझ को


उलझन बन कर, दिन-भर मुझ से, दिन, उलझा रहता है
शाम आती है, साथ बहा कर ले जाती है मुझ को


मैं सच्चा हूँ, तो ख़ुद से फिर क्यूं डरने लगता हूँ

क्यूं मेरी परछाई धोका दे जाती है मुझको

मैं ही कारोबार न सीखूं , तो ग़लती है मेरी
दुनिया तो सब तौर- तरीके बतलाती है मुझ को


आ ! मिल-जुल कर ही अब झेलें 'हम-तुम' ये सूनापन

मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को


आँखों में खालीपन भी है , जीने की ख्वाहिश भी
झूठी -सच्ची आस है कोई, तड़पाती है मुझ को


उलझा-उलझा, तनहा-तनहा, बिखरा-बिखरा 'दानिश'
पल-पल तल्खी, नाम नया ही दे जाती है मुझ को







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Wednesday, May 5, 2010

भीड़ का ना तो कोई नाम होता है, और न ही
भीड़ की कोई शनाख्त होती है...
धीरे-धीरे लगता है हम भीड़ के आदमी बनते जा रहे हैं

कहीं कुछ भी होता रहे, लगता है किसी को कुछ फ़र्क़ ही

नहीं पड़ता... सुबह से शाम
शाम से सुबह रही hai
बस इतना काफी है
ख़ैर.... एक नज़्म/कविता हाज़िर करता हूँ





वो... वो बहुत से लोग....




हमें मालूम है
हम लोग.... हम कुछ-एक लोग

अपनी आवाजों, अपने बोलों, अपने शब्दों के साथ

नाकाम ही रहे

नाकाम.... उस व्यवस्था को बदल पाने में
उस तानाशाह , भ्रष्ट व्यवस्था को बदल पाने में

ऐसी क्रूर, कुटिल, कुख्यात, कलंकित व्यवस्था
जो आम आदमी को दबे ही रहना देना चाहती है

उसी के खोल में ही ...

पर हमें लगा
कि लड़ सकते थे हम लोग

भरोसा था हमें उस भीड़ पर

भीड़ में सांस लेते उन बहुत-से लोगों पर

कि वो लोग....
वो बहुत-से लोग ...
अगर चाहें

तो हम मिल कर चीख सकते हैं

मिल कर आह्वान कर सकते हैं

मिल कर सच्चाई का परचम लहरा सकते हैं


लेकिन हम.... हम फिर नाकाम रहे

क्योंकि वो लोग.... वो बहुत-से लोग

व्यवस्था के साथ लड़ना ही नहीं चाहते थे

बस तमाशा देखते रहना चाहते थे

वो लोग जीना नहीं चाहते थे

बस.. सांस ही लेते रहना चाहते थे ....

और... वही लोग ...
वही बहुत-से लोग ही कामयाब हुए
क्योंकि

वो लोग ...
उस व्यवस्था का हिस्सा बन गए

सुरक्षित हो गए...






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