Friday, December 31, 2010
दिल की गहराईयों से भगवान् जी से प्रार्थना है
कि आने वाला साल आप सब के लिये
ढेरों ढेरों खुशियाँ लेकर आये ....
दुनिया में इंसानियत का परचम हमेशा बलंद रहे ...आमीन ..
दुआओं के लिये अलफ़ाज़ वही... पढ़े / सुने-से .....
नयी दस्तक , नए आसार , ओ साथी
सँवर जाने को हैं तैयार , ओ साथी
नया साल आये , तो, ऐसा ही अब आये
मने, हर दिल में इक त्यौहार , ओ साथी
हर इक आँगन में महकें आस के बूटे
सजे ख़ुशबू से हर घर-द्वार , ओ साथी
चलो, नफ़रत का हर जज़्बा मिटा कर हम
मुहोब्बत का करें इज़हार , ओ साथी
करें कोशिश यही, हर ख़्वाब हो पूरा
मिले हर सोच को आकार , ओ साथी
करें 'दानिश' यही अब प्रार्थना मिल कर
चमन अपना रहे गुलज़ार , ओ साथी
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आप सब को नव वर्ष २०११ के लिये ढेरों मंगल कामनाएँ
"दानिश" भारती
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Friday, December 10, 2010
कुछ 'यूं-ही-सी' व्यस्तताएं , कुछ
एक साहित्यिक पत्रिका "सरस्वती-सुमन" (देहरादून) के
'ग़ज़ल-विशेषांक' के अथिति-सम्पादन का जोखिम भरा कार्य ,,,
बस, ये सब मिल कर ही इम्तेहान लेने पर तुले हैं ...
ख़ैर ,,, आज एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ ....
ग़ज़ल
रहता नहीं है दिल में वो मेहमान आजकल
मेरी तरह, है वो भी परेशान आजकल
ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल
फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल
तेरी निगाह-ए -मस्त के मुहताज हैं सभी
समझा , कि क्यों है मैकदा वीरान आजकल
वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल
माहौल पुरखतर है, कि बीमार ज़ेहन हैं
गुम है सभी के होटों से मुस्कान आजकल
अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल
मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल
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तरक्क़ी-याफ्ता = उन्नत / विकसित मानव
निगाह-ए-मस्त = मस्त आँखें
ज़ीस्त = ज़िन्दगी / जीवन
उनवान = शीर्षक / उद्देश्य
ज़ेहन = सोच / मानसिकता
अना = स्वाभिमान
मुआविज़ा = क़ीमत / वुसूली
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Wednesday, November 24, 2010
उनका ये कथन बहुत जल्द एक मुहावरा-सा बन गया,,,
फिर कई सालों बाद स्विटज़रलैंड के किसी रचनाकार से बात करते हुए
विख्यात लेखक खुशवंत सिंह ने कहा.. "नाम ही में बहुत कुछ रक्खा है"
ये कथ्य बस स्तम्भ-लेख का हिस्सा भर रहा...
गुलज़ार साहब का मानना ये रहा कि "नाम गुम जाएगा...."
और एक ये लोकोक्ति "नाम बड़े और दर्शन छोटे.."
अदाकारा मीना कुमारी (मरहूम) फरमाती थीं ...
"आगाज़ तो होता है,अंजाम नहीं होता, जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता॥"
और जावेद अनवर साहब ने उषा खन्ना के संगीत में रफ़ी जी से गवाया
"तुम भी कुछ अच्छा-सा रख लो अपने दीवाने का नाम..."
और नाम के सिलसिले में मुफ़लिस और दानिश दोनों का ये मानना है
"किरदार अहम् है दुनिया में , ये नाम बदलते रहते हैं..."
आज दानिश को आपके रु.ब.रु करते हुए मैं ये कुछ अलफ़ाज़
आप सब के सुपुर्द करता हूँ .......
उम्र के हर मोड़ पर हमने दिए क्या-क्या जवाब
उम्र भर उसके सवालों की न शिद्दत कम हुई
आज भी चुकता नहीं हो पाया क़र्ज़ा ज़ीस्त का
घट गया है और इक दिन , और मोहलत कम हुई
"दानिश" भारती
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क़र्ज़ा = क़र्ज़
शिद्दत = तीव्रता
जीस्त = ज़िन्दगी
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Wednesday, November 3, 2010
'दीपावली' आ पहुंचा है,,, हर तरफ ख़ुशियों की फुहार बरस रही है
घर-बाज़ार, गली-कूचे सजे संवरे से नज़र आते हैं,,,
सब मन-भावन है .... लेकिन कुछ मन.... जो उदास हैं,,,
किन्ही कारणों से मजबूर हैं,,,किसी छोटे या बड़े दुःख में घिरे हैं,,,,
आओ ... इस दीपावली पर उन सब के लिये भी ढेरों ढेरों दुआएं मांगें...
लीजिये, एक नज़्म हाज़िर है .......
चलो , कुछ उनके लिये भी चिराग़ रौशन हों .....
ये रौशनी, ये चमक, ये चहल-पहल हर सू
कि हर तरफ ही गुलो-ख़ुशबुओं के साये हैं
ज़मीं का रंग अलग ही तरह से निखरा है
कि आसमान तलक रंगो-नूर छाये हैं
ख़ुशी से झूम उठेंगे खिले-खिले चेहरे
जलेंगे दीप हर इक सिम्त शादमानी के
करेंगी रक्स ये रंगीनियाँ फ़ज़ाओं में
सितारे गीत सुनाएंगे रात-रानी के
मगर , इक ऐसा भी कोना है, जो अँधेरा है
जहाँ है दीप की आहट, न रौशनी का सुराग़
कुछ-एक ऐसे भी अरमान हैं, जो मुर्दा हैं
जहाँ हमेशा है उम्मीद, इक जलेगा चिराग़
कुछ ऐसे लोग, जो बेबस हैं , कुछ परेशाँ हैं
उदासियों के, या मजबूरियों के मारे हैं
दुखों का बोझ, बुरा वक़्त, खेल क़िस्मत का,
किसी कमी की वजह से जो ख़ुद से हारे हैं
चलो , कि उनके घरों में भी रौशनी झलके
चलो , ये सोचें कि अब प्यार हो, तो सबके लिये
चलो , कुछ उनके लिये भी चराग़ रौशन हों
चलो , दियों का ये त्यौहार हो, तो सबके लिये
'दानिश' भारती
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हर इक सिम्त = हर तरफ , चहुँ और
शादमानी = खुशियाँ , उल्लास
रक्स (raqs) = नृत्य, नाच
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आप सब को दीपावली की ढेरों शुभकामनाएँ
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Saturday, October 16, 2010
पिछली रचना पोस्ट करने की तिथि देख कर, लगने ही लगा
कि दिन बहुत हो गए हैं,,, कुछ नया हो जाना चाहिए...
लेकिन,, जब पोटली में तलाश किया तो खाली-खाली-सी महसूस हुई
गीत याद आने लगा "जो मुराद बन के बरसे,वो दुआ कहाँ से लाऊँ..."
फिर, बैठे-बैठे,, जाने कब,,, कुछ आड़ी-तिरछी-सी रेखाएं खिंच गईं...
और ठान लिया...कि अब जो भी है , यही सुनाना/पढवाना है आपसब को .....
तो... लीजिये...हाज़िर है एक नज़्म ...
मैं कविता में.... मुझ में कविता
मैं , अक्सर ही
अपनी इक बेसुध-सी धुन में
कुछ लम्हों को साथ लिए, जब
अलबेली अनजानी ख़्वाबों की दुनिया में
ख़ुद अपनी ही खोज-ख़बर लेने जाता हूँ
तब, कुछ जानी-पहचानी यादों का जादू
मुझको अपने साथ बहा कर ले जाता है ...
लाख जतन कर लेने पर भी
कुछ पुरसोज़ ख़यालों को, जब,
लफ़्ज़ों से लबरेज़ लिबास नहीं मिल पाता
ज़हन में, पल-पल चुभते, तल्ख़ सवालों का जब
मरहम-सा माकूल, जवाब नहीं मिल पाता
ऐसे में मैं,,
ऐसे में मैं भूल के ख़ुद को
उसको याद किया करता हूँ
अनजानी आहट की राह तका करता हूँ
और अचानक
इक आमद होने लगती है
आड़े-तिरछे लफ़्ज़, लक़ीरें,
ख़ुशख़त-सी तहरीरों में ढलने लगते हैं
कुछ क़तरे, कुछ मुस्कानें, सब,
'इक कविता-सी' हो जाते हैं ...
फिर मैं, और मेरी ये कविता
इक दूजे से, देर तलक बातें करते हैं
काग़ज़ के टुकड़े पर फ़ैली...
वो, मेरे सीने पे सर रख, सो जाती है
मैं भी देर तलक उसको पढता रहता हूँ
हम दोनों ही खो जाते हैं...
मैं कविता में...
मुझ में कविता ....
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Sunday, September 26, 2010
उसे आप पहले "आज की ग़ज़ल" ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं
बस मन में आया कि उसी ग़ज़ल को दोहरा लिया जाए...
उम्मीद करता हूँ कि हमेशा की तरह ही
अपनी दुआओं से नवाजेंगे ....
ग़ज़ल
जो सच से ही नज़रें बचा कर चले
समझ लो वो अपना बुरा कर चले
चले, जब भी हम, मुस्कुरा कर चले
हर इक राह में गुल खिला कर चले
हम अपनी यूँ हस्ती मिटा कर चले
मुहव्बत को रूतबा अता कर चले
लबे-बाम हैं वो, मगर हुक़्म है
चले जो यहाँ, सर झुका कर चले
इसे, उम्र भर ही शिकायत रही
बहुत ज़िन्दगी को मना कर चले
वो बादल ज़मीं पर तो बरसे नहीं
समंदर पे सब कुछ लुटा कर चले
चकाचौंध के इस छलावे में हम
खुद अपना ही विरसा भुला कर चले
किताबों में चर्चा उन्हीं की रहा
ज़माने में जो, कुछ नया कर चले
ख़ुदा तो सभी का मददगार है
बशर्ते, बशर इल्तिजा कर चले
कब इस का मैं 'दानिश' भरम तोड़ दूँ
मुझे ज़िन्दगी आज़मा कर चले
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लबे-बाम = अटरिया पर , छत पर ,
अटारी (बालकनी में)
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Thursday, September 2, 2010
अटपटी है किमुझे ब्लॉग-जगत में होती रहने वाली आहटों का
समय रहते पता ही नहीं चल पाता,,, कब किसी
ब्लॉग-मित्र द्वारा कोई रचना डाल दी जाती है, उसकी
खबर मुझे अपने ब्लॉग से नहीं हो पाती ....
अत: मैं सभी साथियों से क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैं
मुनासिब वक्त पर वहाँ हाज़िर नहीं हो पाता हूँ।
ख़ैर एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हुआ हूँ .....
ग़ज़ल
चार:गर का फ़ैसला कुछ और है
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ
इम्तिहानों का नशा कुछ और है
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है
जो बशर मालिक की लौ से जुड गया
'दानिश' उसका मर्तबा कुछ और है
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चार;गर = चारागर , इलाज करने वाला
रज़ा = मर्ज़ी ,,, पुरसुकून = सुख देने वाली
लफ़्ज़ = शब्द ,,,, मानी = अर्थ
सुख़न = काव्य सृजन
मर्तबा = रूतबा
Monday, August 16, 2010
अच्छी और स्तरीय रचनाएं / ग़ज़लें पढने को मिलीं ...
आपने सीमित ज्ञान और व्यस्तताओं के कारण
मैं समय रहते आपसे कुछ सांझा ना कर पाया...
eक कविता जो कभी पहले लिखी थी और कल यहाँ
"बाल-भवन" में संपन्न हुए स्वतंत्रता-दिवस समारोह में
वहाँ रह रहे अनाथ बच्चों दुआरा समूह-गीत की तरह गाई गयी
उसी को आप भी दोहरा लीजिये .......
पुण्य धरा की आरती
अपनी पुण्य धरा पर, हैं बलिहारी हम सब भारती
मन आशा के दीप जला कर , नित्य उतारें आरती
हिम-आलय का ताज अनूठा, माथे का सम्मान है
बहते जल की धाराओं की भी, अपनी इक शान है
खेतों की माटी की ख़ुशबू , जीवन की पहचान है
इन सब की सुन्दरता, देखो, सब के मन को तारती
मन आशा के दीप जला कर नित्य उतारें आरती....
वन-जंगल , हरियाली , रक्षा करते हैं परिवेश की
मौसम की करवट से, आभा निखरे इसके वेश की
कुदरत के अनगिनत अनुपम स्रोत, धरोहर देश की
जलवायु की शीतलता , धरती का रूप सँवारती
मन आशा के दीप जला कर नित्य उतारें आरती ....
अपनी धरती माँ से हम को, तन-मन-धन से प्यार हो
सारे जग की शान बनें हम , ये सपना साकार हो
इसकी गोदी में ही जीना-मरना , सब स्वीकार हो
माँ भी अपने सब बच्चों को पल-पल देख, दुलारती
मन आशा के दीप जला कर नित्य उतारें आरती
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Sunday, July 25, 2010
"करूँ क्या आस निरास भई....",,,, कुछ ऐसी ही उधेड़-बुन से हो कर
गुज़रते हुए सोचते-सोचते ज़हन में ये बात भी आई कि
दुआओं में असर होता है...बहुत असर होता है
किसी की दुआएं आपके काम आ जाती हैं ,,,और आपकी दुआएं भी
किसी के काम आ सकती हैं..... यक़ीनन....
इबादत
माना ,
कि मुश्किल है
बहुत मुश्किल
इस तेज़ रौ ज़िन्दगी की
हर ज़रुरत में
हर पल किसी के काम आ पाना
इस भागते-दौड़ते वक्त में
हर क़दम
किसी का साथ दे पाना
इस अपने आप तक सिमटे दौर के
हर दुःख में
किसी का सहारा बन पाना
हाँ ! बहुत मुश्किल है
लेकिन
कुछ ऐसा भी मुश्किल तो नहीं
ख़ुदा से
अपने लिए की गयी बंदगी के नेक पलों में
किसी और के लिए भी दुआएं करते रहना
अपना भला चाहते-चाहते
दूसरों का भी भला मांगते रहना ....
सच्ची इबादत....
अब इसके सिवा
और...
हो भी तो क्या !!
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Saturday, July 3, 2010
दूरी... भला किसे अच्छी लगती है,, हाँ , ये और बात है
कि वक़्त और हालात इस बात की इजाज़त ना दें कि
इंसान हर बार अपनी ज़िद और मर्ज़ी चला सके ...
लीजिये ... एक ग़ज़ल हाज़िर-ए-ख़िदमत है .........
ग़ज़ल
कब , किसको , क्या देना है , ख़ुद आँके है
ऊपर वाला , पोथी सब की जाँचे है
खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है
क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है
खूब सजा रहता है छप्पन-भोग कहीं
और कोई बस रूखी-सूखी फाँके है
है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की
पल-पल गगरी छलके, मनवा काँपे है
जो क़िस्मत में लिक्खा है , मिल जाएगा
हाथों की तू व्यर्थ लक़ीरें बाँचे है
है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है
जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'दानिश' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है
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Tuesday, June 8, 2010
इंतज़ाम किया जाता है ... वहाँ एक बार ये मिसरा दिया गया ...
"कभी इनकार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में......"
इस बार, , वहाँ छप चुकी अपनी ग़ज़ल के कुछ शेर
आपकी खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ
ग़ज़ल
उठो , आगे बढ़ो , कर लो समंदर पार, चुटकी में
वगरना ग़र्क़ कर देगा तुम्हें मँझदार चुटकी में
किया , जब भी किया उसने , किया इज़हार चुटकी में
'कभी इनकार चुटकी में , कभी इकरार चुटकी में'
बहुत मग़रूर कर देता है दौलत का नशा अक्सर
फिसलते देखे हैं हमने कई किरदार चुटकी में
ख़ुदा की ज़ात पर जिसको हमेशा ही भरोसा है
उसी का हो गया बेड़ा भँवर से पार चुटकी में
परखते ही वसीयत गौर से, बीमार बूढ़े की
टपक कर आ गए जाने कई हक़दार चुटकी में
विदेशों की कमाई से मकाँ अपने सजाने को
कई लोगों ने गिरवी रख दिए घर-बार चुटकी में
किया वो मोजिज़ा नादिर, नफस दमसाज़ ईसा ने
मुबारिक हो गये थे अनगिनत बीमार चुटकी में
ख़याल-ओ-सोच की ज़द में इक उसका नाम क्या आया
मुकम्मल हो गये मेरे कई अश`आर, चुटकी में
सफलता के लिए 'दानिश' कड़ी मेहनत ज़रूरी है
नहीं होता यूँ ही सपना कोई साकार चुटकी में
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वगरना = अन्यथा , नहीं तो
मोजिज़ा = चमत्कार ,,,,, नादिर = अमूल्य, श्रेष्ठ
नफ़सदम साज़ ईसा = प्रभु यीशु (न्यू टेसतामेंट में दर्ज घटना का विवरण )
मुबारिक = भले-चंगे ,,,,,,, ख़याल-ओ-सोच = मन की कल्पना
ज़द = लक्ष्य , निशाना
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Sunday, May 23, 2010
लग नहीं रहा था कि आज भी हाज़िर हो पाउँगा,,,
लेकिन वक़्त में कुछ पल ऐसे होते हैं जो ख़ुद पुकारने लगते हैं
"जो वाबस्ता हुए तुमसे, वो अफ़साने कहाँ जाते..."
ख़ैर... ज़िन्दगी के इम्तिहनात अपनी जगह, हालात की
मर्ज़ी अपनी जगह, और इंसान की सोच अपनी जगह ...
एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ.....
ग़ज़ल
बस्ती-बस्ती , सहरा-सहरा ले जाती है मुझ को
अब ख़ुद से मिलने की धुन भी तडपाती है मुझ को
उलझन बन कर, दिन-भर मुझ से, दिन, उलझा रहता है
शाम आती है, साथ बहा कर ले जाती है मुझ को
मैं सच्चा हूँ, तो ख़ुद से फिर क्यूं डरने लगता हूँ
क्यूं मेरी परछाई धोका दे जाती है मुझको
मैं ही कारोबार न सीखूं , तो ग़लती है मेरी
दुनिया तो सब तौर- तरीके बतलाती है मुझ को
आ ! मिल-जुल कर ही अब झेलें 'हम-तुम' ये सूनापन
मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को
आँखों में खालीपन भी है , जीने की ख्वाहिश भी
झूठी -सच्ची आस है कोई, तड़पाती है मुझ को
उलझा-उलझा, तनहा-तनहा, बिखरा-बिखरा 'दानिश'
पल-पल तल्खी, नाम नया ही दे जाती है मुझ को
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Wednesday, May 5, 2010
भीड़ की कोई शनाख्त होती है...
धीरे-धीरे लगता है हम भीड़ के आदमी बनते जा रहे हैं
कहीं कुछ भी होता रहे, लगता है किसी को कुछ फ़र्क़ ही
नहीं पड़ता... सुबह से शाम शाम से सुबह रही hai
बस इतना काफी है
ख़ैर.... एक नज़्म/कविता हाज़िर करता हूँ ॥
वो... वो बहुत से लोग....
हमें मालूम है
हम लोग.... हम कुछ-एक लोग
अपनी आवाजों, अपने बोलों, अपने शब्दों के साथ
नाकाम ही रहे
नाकाम.... उस व्यवस्था को बदल पाने में
उस तानाशाह , भ्रष्ट व्यवस्था को बदल पाने में
ऐसी क्रूर, कुटिल, कुख्यात, कलंकित व्यवस्था
जो आम आदमी को दबे ही रहना देना चाहती है
उसी के खोल में ही ...
पर हमें लगा
कि लड़ सकते थे हम लोग
भरोसा था हमें उस भीड़ पर
भीड़ में सांस लेते उन बहुत-से लोगों पर
कि वो लोग....
वो बहुत-से लोग ...
अगर चाहें
तो हम मिल कर चीख सकते हैं
मिल कर आह्वान कर सकते हैं
मिल कर सच्चाई का परचम लहरा सकते हैं
लेकिन हम.... हम फिर नाकाम रहे
क्योंकि वो लोग.... वो बहुत-से लोग
व्यवस्था के साथ लड़ना ही नहीं चाहते थे
बस तमाशा देखते रहना चाहते थे
वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस.. सांस ही लेते रहना चाहते थे ....
और... वही लोग ...
वही बहुत-से लोग ही कामयाब हुए
क्योंकि
वो लोग ...
उस व्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षित हो गए...
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Wednesday, April 21, 2010
हाथों में खेलना पड़ता है.... कभी कभार इंसान को
कुछ तल्ख़ और उदास लम्हों से दो-चार
होना पड़ता है... ऐसे धैर्य की
अंगुली थामे रहना ही वाजिब माना जाता है...
इस जज़्बे के इलावा अगर कुछ काम आ पाता है
तो वो हैं कुछ खास दोस्तों की नेक दुआएं...
लीजिये... एक सादा-सी , छोटी-सी ,
बस यूँ-ही-सी ग़ज़ल हाज़िर है ........
ग़ज़ल
जीवन खेल अजब देखा है
कब, क्या हो, ये कब देखा है
तुझ में अपना रब देखा है
जीने का मतलब देखा है
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
खुशियों में भी ग़म की आहट
वक़्त बड़ा बेढब देखा है
दिल अपना है , दर्द पराया
ये दस्तूर गज़ब देखा है
रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
क्या वो भी यूँ सोचे मुझको
नुक्ता , ग़ौरतलब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'दानिश' ख़ुद को अब देखा है
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नुक्ता=मर्म की बात , रहस्य,
गौरतलब= ध्यान देने योग्य
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Wednesday, April 7, 2010
उतना ही अनभिज्ञ हूँ जितना कि इस विधा में
महारत रखने वाले कुछ अन्य साथी हैं,,,, कई बार
शैली की कसावट की जगह कथन/कथानक को
अधिमान देना ही पर्याप्त समझा जाता है,,,और ये
तथ्य ही इस विधा की सफलता को रेखांकित करता है
उत्तर-आधुनिक काव्य में प्रयुक्त प्रतीक, विम्ब,
उपमाएं इत्यादि, निसंदेह ही इसकी विशेषता जाने जाते हैं
अपने अल्प-ज्ञान को स्वीकारते हुए ही आपके समक्ष एक
कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ... अब क्या करें .....
" जिन्हें जलने की हसरत हो,, वो परवाने कहाँ जाएं..."
और आज ......
इक दौर था वो भी...
हर घर के किसी एक ही कमरे में पड़ा
एक ही टी.वी.
सबका सांझा हुआ करता था
शाम ढलते ही उमड़ पड़ता
देखने वालों का जमावड़ा
सब के सब एक ही जगह ...
सब... इक साथ...पास-पास
सबकी सांझी ख़ुशी, सांझी सोच, सांझी मर्ज़ी
तब ......
घर में सब जन एक थे... सब इक साथ ...
इक दूजे के पास-पास, इक दूजे के साथ-साथ
इक दौर है ये भी ...
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है
सब.... अलग-अलग अपना
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी.
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना
और आज .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
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Wednesday, March 24, 2010
कुछ ऐसा नहीं है ख़ास मन में कि कुछ शब्द
कह कर भूमिका बाँध ली जाये,, बस कुछ
हल्के-फुल्के वाक्य हैं जिन्हें ग़ज़ल कह कर
आपकी ख़िदमत में हाज़िर कर रहा हूँ...और
उम्मीद वोही कि आपको पसंद आएगी...
ग़ज़ल
ग़म में गर मुब्तिला नहीं होता
मुझको मेरा पता नहीं होता
जो सनम-आशना नहीं होता
उसको हासिल ख़ुदा नहीं होता
वक़्त करता है फ़ैसले सारे
कोई अच्छा बुरा नहीं होता
मैं अगर हूँ, तो कुछ अलग क्या है
मैं न होता, तो क्या नहीं होता
हाँ ! जुदा हो गया है वो मुझ से
क्या कभी हादिसा नहीं होता ?
ज़िन्दगी क्या है, चंद समझौते
क़र्ज़ फिर भी अदा नहीं होता
जब तलक आग में न तप जाये
देख, सोना खरा नहीं होता
क्यूं भला लोग डूबते इसमें
इश्क़ में गर नशा नहीं होता
डोर टूटेगी किस घड़ी 'दानिश'
कुछ किसी को पता नहीं होता
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मुब्तिला=ग्रस्त
सनम-आशना=दोस्तों को चाहने वाला
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Thursday, March 11, 2010
"प्यार और बारिश एक-से होते हैं,,,बारिश पास रह कर
तन भिगोती है और प्यार दूर रह कर आँखें..."
असरदार पैग़ाम अक्सर मन में समा जाया करते हैं ..
ख़ैर .....आप सब की हिफाज़तों और दुआओं के नाम....
एक नज़्म हाज़िर करता हूँ ।
काश...
साँझ के उदास धुंधलकों में
ख़ुद अपने आप से भी दूर
कुछ तन्हा-से लम्हों को ओढ़े
उसने ...
मिट्टी की खुरदरी सतह पर
अपनी उँगलियों से
इक नाम लिखा ...
ज़रा देर
वक़्त के ठहर जाने को महसूस किया
फिर अचानक ठिठक कर
अपनी भरपूर हथेली से
उस लिखे नाम को मिटा दिया...
और
ख़ुद में वापिस लौटते हुए
वो
यकायक कह उठा
काश ....
ऐसा ही कहीं आसान हो पाता
दिल पर लिखे कुछ नक्श मिटा पाना ...
... .....
काश ......!!
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Saturday, February 27, 2010
नमस्कार !
होली का त्यौहार आ पहुंचा है ....रंगों की फुहार से माहौल
खुशनुमा हुआ जाता है...इस मौक़े पर एक रीत ये भी चली आ रही है कि
हास्य और व्यंग्य का बोल-बाला रहता है...साहित्य में भी हास-परिहास
रचना एक परम्परा के रूप ले चुका है...हंसना - मुस्कराना अच्छा लगता है
वो गीत है न....."मुस्कराओ कि जी नहीं लगता ..."(लताजी) या
"हंसता हुआ नूरानी चेहरा....",,,,ऐसे कितने ही गीत ज़हन में आ जाते हैं
ये और बात है कि मुकेश जी का गायाये गीत भी ज़हन में ही बसा रहता है ,,
"होंटोके पास आये हंसी, क्या मजाल है...."
ख़ैर .....एक हास्य रचना ले कर हाज़िर हूँ
आप सब को होली के त्यौहार की शुभकामनाएं ..................
हज़ल
आदत से मजबूर थे हम, मन फिर ललचाया रस्ते में
कल फिर उस लड़की को हमने खूब सताया रस्ते में
नाक कटे, या पगड़ी उछले, हमने कुछ परवाह न की
ज़िद में आ कर हमने सबको नाक चिढ़ाया रस्ते में
'परले दर्जे के दादा' के हम इकलौते बेटे हैं
आते-जाते हमने सब को ये जतलाया रस्ते में
सब गुंडे हैं दोस्त हमारे , थाने में पहचान भ है
ऐसा रौब जमा कर , इक-इक को धमकाया रस्ते में
गुंडागर्दी , सीनाज़ोरी , मन मर्ज़ी , छीना झपटी
रोज़ नयी आफ़त से अपना खेल दिखाया रस्ते में
सब्र मोहल्ले वालों का आखिर को ख़त्म तो होना था
स्कीम बना कर सबने मिल कर जाल बिछाया रस्ते में
बच्चे-बूढ़े , मर्द-जनाना , हथियारों से लैस हुए
चप्पल-जूतों से स्वागत का द्वार बनाया रस्ते में
भांप लिया हमने , अब अपनी फूंक निकलने वाली है
आनन्-फानन में बचने का प्लान बनाया रस्ते में
लेकिन , घेर लिया लोगों ने , इक कोने में खींच लिया
फिर , बेरहमी से 'दानिश' का ढोल बजाया रस्ते में
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Monday, February 15, 2010
ज़िन्दगी जुर्म सही, जब्र सही, ग़म ही सही ...
जाने क्यूं आज सुमन कल्यानपुर का गाया ये गीत
अचानक ज़बाँ पर आ गया...आप सब ने भी सुना ही होगा
बस यूं ही सांझा करने को जी चाहा .....
एक नज़्म-नुमा कुछ ताना-बाना-सा हुआ है
आप मेहरबान दोस्तों को आदत तो है ही ...सह लेने की ....
सो...क़ुबूल फरमाईये
आज फिर
आज
आज फिर...
वो अपने आप-सा
उदास-सा दिखा
आज फिर
कुछ भी तो
अपनी तरह से न हो पाने पर...
वो झुंझलाया
आज फिर
अपने अकेलेपन के एहसास से झगड़ते हुए
हालात की तल्ख़ी से हार कर ...
वो कसमसाया
आज फिर
माहौल के खालीपन को गले लगा
ख़ुद से बात करने की कोशिश में
अचानक
वो उठा...
अपनी पलकों के कोनों पर उभर आये
चन्द क़तरों को दर्पण में निहारा
और....
हँस दिया .....
...................
आज फिर ....
Sunday, January 31, 2010
फ़न की खूबियों से आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते
कभी कभी किसी से कितनी भी बातें कर लो ...
हर बार कम लगने लगती हैं.... और कभी ऐसा हो जाता है
कि किसी से की हुई बहुत कम बातें भी कम नहीं लगतीं...
है तो ये एक अनबूझ पहेली ही,,,,,लेकिन अखरती नहीं
लगता है न किसी पुरानी फिल्म का जुमला...!!
मुझे भी लगा...... अब.... कोई बात तो करनी ही थी आपसे (:
ख़ैर.....एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ
ग़ज़ल
पाँव जब भी इधर-उधर रखना
दिल में अपने ख़ुदा का डर रखना
रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना
वक़्त जाने कब इम्तिहान माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना
मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हम-सफ़र रखना
खौफ़ रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना
बात किस से करोगे फुर्क़त में
आंसुओं को सँभाल कर रखना
चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे सोच कर रखना
हक़ जताना अज़ीज़ है जो तुम्हें
फ़र्ज़ को भी अज़ीज़तर रखना
तंज़ जब भी करो किसी पे अगर
सामने ख़ुद को पेशतर रखना
आएं कितने भी इम्तिहाँ 'दानिश'
अपना किरदार मोतबर रखना
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रहज़न=लुटेरा ,,,,,, रहनुमा=मार्ग-दर्शक
बजा=सही/ठीक,,,,,,फुर्क़त=वियोग,उदासी ,,,,,,
अज़ीज़=प्रिय
अज़ीज़तर=ज़्यादा प्रिय ,,,,,, तंज़=कटाक्ष
पेशतर=पहले ,,,,,, किरदार=चरित्र
मोतबर=विश्वसनीय .
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