आजकल ब्लॉग पर आना-जाना कम हो पा रहा है,,,कुछ वक्त की तंगी
कुछ मन का खालीपन ,,,और ऐसा ही कुछ.....!?!
वैसे क़लम भी तो इतना मेहरबान नही रहता मुझ पर कि
अपने खयालात आपसे जल्द-जल्द सांझा करता रहूँ ।
ख़ैर....एक ग़ज़ल ले कर आप की ख़िदमत में हाज़िर हो रहा हूँ ।
अपनी राहनुमाई से नवाज़ेंगे भरोसा है मुझे ............
ग़ज़ल
ज़िक्र न जिन में होगा उसका , उसकी बात न होगी
मेरी, उन तहरीरों की कोई औक़ात न होगी
मौसम की दावत है , अब तो , कुछ मनमानी कर लें
उम्र गुज़र जाने पर हासिल ये सौग़ात न होगी
अब पहले-सा वक्त नहीं , खुश-फ़हमी में मत रहना
सच की राह पे चल दोगे, तो तुम को मात न होगी
उट्ठो , जागो , दुश्मन की हर हरक़त को पहचानो
क्या तब तक ख़ामोश रहोगे जब तक घात न होगी?
क्या इक ऐसा दौर भी होगा , वो युग भी आयेगा
इन्सां की पहचान जहाँ , मज़हब या ज़ात न होगी !
एक झलक, बस एक झलक, बस एक झलक हसरत है
दीद की प्यासी आंखों को कब तक खैरात न होगी?
दिल का दर्द घनेरा अब आंखों तक घिर आया है
बादल दूर न होंगे अब , जब तक बरसात न होगी
रास नहीं आई तुझको रिश्तों की तल्ख़ हक़ीक़त
ऐसी ख़ुद से भी दूरी 'दानिश' बिन बात न होगी
तहरीरों=लिखितें/लेखन
औकात=स्तर
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Monday, November 23, 2009
Monday, November 9, 2009
सूना तो यही है कि कहने को जब कुछ न हो
तो कुछ भी कह लो, सुन लिया जाता है ...
अब आख़िर खामोशी के ज़ेवर को उतार कर
कहाँ रख दिया जाए ...शकील ने भी तो कहा है
ज़रा तू ही बता ऐ दिल सुकूँ पाने कहाँ जाएं...
khair...ab अल्फ़ाज़ की बुनावट है या बनावट ,
एक नज़्म हाज़िर है .......
मैंने ...देखा उसे
मैंने देखा उसे
दूर तक ....
खालीपन में...
घंटों....
टकटकी लगा.. देखते हुए
मैंने देखा उसे
ख़ुद ही से रूठ कर
ख़ुद ही पर
एक बेजान-सी खामोशी
ओढे हुए....
मैंने देखा उसे
किसी भी हालात का
शिकवा किए बगैर
बस अपने आप ही से
झगड़ते हुए....
और... .
जब कभी....
उसके क़रीब जा कर
मैंने
ज़रा सा छुआ जो उसे ...
तो...
मैंने देखा उसे
... झट से
अपनी पलकों के कोनों पर उभर आई
नमी को पोंछ ...
बक-बक बड़बड़ाते हुए
बिना वजह ही .....
हँसते हुए....,
बिन बात मुस्कराते हुए.....!!
तो कुछ भी कह लो, सुन लिया जाता है ...
अब आख़िर खामोशी के ज़ेवर को उतार कर
कहाँ रख दिया जाए ...शकील ने भी तो कहा है
ज़रा तू ही बता ऐ दिल सुकूँ पाने कहाँ जाएं...
khair...ab अल्फ़ाज़ की बुनावट है या बनावट ,
एक नज़्म हाज़िर है .......
मैंने ...देखा उसे
मैंने देखा उसे
दूर तक ....
खालीपन में...
घंटों....
टकटकी लगा.. देखते हुए
मैंने देखा उसे
ख़ुद ही से रूठ कर
ख़ुद ही पर
एक बेजान-सी खामोशी
ओढे हुए....
मैंने देखा उसे
किसी भी हालात का
शिकवा किए बगैर
बस अपने आप ही से
झगड़ते हुए....
और... .
जब कभी....
उसके क़रीब जा कर
मैंने
ज़रा सा छुआ जो उसे ...
तो...
मैंने देखा उसे
... झट से
अपनी पलकों के कोनों पर उभर आई
नमी को पोंछ ...
बक-बक बड़बड़ाते हुए
बिना वजह ही .....
हँसते हुए....,
बिन बात मुस्कराते हुए.....!!
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