Thursday, December 24, 2009

पिछले कुछ दिनों से शहर में हर तरफ क्रिसमस की
धूम नज़र आ रही है ...जगह जगह बड़े बड़े स्टार सजे
हुए हैं ...बड़े-बड़े सांता कलाउज़ बने इठला रहे हैं ...
गिरजा घरों की रौनक़देखने लायक़ है ... मानो एक
बहुत बड़ा उत्सव सभी के मन में समाए जा रहा है ....
carols और chimes की गूँज के स्वर तरंगित करते हैं
प्रभु यीशु की महिमा का गुणगान भी हो रहा है ..........
चलिए , एक नगमा हम सब मिल कर गुनगुनाएं .................
(हाजत-रवा अर्थात ज़रूरतें पूरी करने वाला,, बाक़ी कुछ
शब्दार्थ नीचे दिए हैं)
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यीशु सब का हाजत-रवा बन के आया



किसी के दुखों की दवा बन के आया
किसी की ख़ुशी का पता बन के आया
हमेशा नया रास्ता बन के आया
यीशु, सब का हाजत-रवा बन के आया ....


मिले इब्ने-मरियम की शफ़क़त मुझे भी
अता हो ख़ुदा तेरी रहमत मुझे भी
जियारत करूँ है ये चाहत मुझे भी
मेरी ख्वाहिशों की सदा बन के आया
यीशु, सब का हाजत-रवा ...........


तेरा फैज़ है तो , हर इक दिलकशी है
सुकूँ है दिलों को , मुसलसल खुशी है
धड़कती हुई हर तरफ ज़िन्दगी है
फ़िज़ाओं में हर सू ज़िया बन के आया
यीशु , सब का हाजत-रवा ..............


ज़मीं से फ़लक तक , तेरा नाम दाता
मुबारक , मुक़द्दस ये इल्हाम दाता
हर इक सम्त पहुंचे ये पैग़ाम दाता
मेरे क़ौल का आसरा बन के आया
यीशु , सब का हाजत-रवा ..............


हमेशा ही इंसानियत, मुद्दआ हो
सभी में हो बरक़त , सभी का भला हो
ख़ुदा की इबादत हो , हम्दो-सना हो
वो 'दानिश' के लब पे दुआ बन के आया
यीशु, सब का हाजत-रवा बन के आया
यीशु , सब का हाजत-रवा बन के आया

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हाजत-रवा= ज़रूरतें पूरी करने वाला
इब्ने-मरियम= मरियम का बेटा
शफ़क़त=कृपा
अता=दान, मिले
रहमत=दया
ज़ियारत=तीरथ
सदा=आवाज़
फैज़=उपकार/कृपा
मुसलसल=लगातार
हर सू=हर तरफ
ज़िया=प्रकाश
मुक़द्दस=पवित्तर
इल्हाम=ईश्वरीय सन्देश
सम्त=दिशा
क़ौल=वचन
हमद-ओ-सना=इश्वर स्तुति/गान

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Tuesday, December 15, 2009

पिछ्ला हफ्ता दिल्ली और अलवर (राजस्थान)
में गुज़रा ...दिल्ली में डॉ दरवेश भारती ,
श्री प्रेम सहजवाला, श्री जगदीश रावतानी, श्री शैलेश भारतवासी
(सभी ब्लोग्गेर्स ,हिंद-युग्म) से मुलाक़ात का सबब हुआ ....
और अलवर में एक साहित्यिक गोष्ठी में देश के प्रख्यात साहित्यकार
डॉ विनय मिश्र , श्रीमती राज गुप्ता , श्रीमती नीरू , श्री रामचरण राग,
तथा कुछ अन्य (कोई भी ब्लोगर नहीं) ....इन सब से
विचार-विमर्श का सौभाग्य प्राप्त हुआ ....
और अब आप सब से मुखातिब हूँ ....
धीरे-धीरे आप सब की रचनाएं पढ़ना चाहूँगा....
और ये ...आप हज़रातके लिए.....



पहचान



माना !
किन्ही मजबूरियों
और अपनी जिम्मेदारियों को
निभाते रहने की हालत में
मुमकिन नहीं
हर पल ,
हमेशा ,
दूसरों का भला कर पाना
लेकिन......
मुमकिन है यह
हर पल ,
हमेशा ,
ख़याल रखना इस बात का
किसी का दिल न दुखने पाए
किसी का बुरा न होने पाए ...
ऐसी कोशिशें
करते रहना भी तो
दूसरों का
भला कर पाने के समान ही है
आख़िर.....
ख़ुद को
अपनी पहचान
हमें ख़ुद ही देनी है ......!!


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Monday, November 23, 2009

आजकल ब्लॉग पर आना-जाना कम हो पा रहा है,,,कुछ वक्त की तंगी
कुछ मन का खालीपन ,,,और ऐसा ही कुछ.....!?!
वैसे क़लम भी तो इतना मेहरबान नही रहता मुझ पर कि
अपने खयालात आपसे जल्द-जल्द सांझा करता रहूँ ।
ख़ैर....एक ग़ज़ल ले कर आप की ख़िदमत में हाज़िर हो रहा हूँ ।
अपनी राहनुमाई से नवाज़ेंगे भरोसा है मुझे ............



ग़ज़ल


ज़िक्र न जिन में होगा उसका , उसकी बात न होगी
मेरी, उन तहरीरों की कोई औक़ात न होगी

मौसम की दावत है , अब तो , कुछ मनमानी कर लें
उम्र गुज़र जाने पर हासिल ये सौग़ात न होगी

अब पहले-सा वक्त नहीं , खुश-फ़हमी में मत रहना
सच की राह पे चल दोगे, तो तुम को मात न होगी

उट्ठो , जागो , दुश्मन की हर हरक़त को पहचानो
क्या तब तक ख़ामोश रहोगे जब तक घात न होगी?

क्या इक ऐसा दौर भी होगा , वो युग भी आयेगा
इन्सां की पहचान जहाँ , मज़हब या ज़ात न होगी !

एक झलक, बस एक झलक, बस एक झलक हसरत है
दीद की प्यासी आंखों को कब तक खैरात न होगी?

दिल का दर्द घनेरा अब आंखों तक घिर आया है
बादल दूर न होंगे अब , जब तक बरसात न होगी

रास नहीं आई तुझको रिश्तों की तल्ख़ हक़ीक़त
ऐसी ख़ुद से भी दूरी 'दानिश' बिन बात न होगी


तहरीरों=लिखितें/लेखन
औकात=स्तर

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Monday, November 9, 2009

सूना तो यही है कि कहने को जब कुछ न हो
तो कुछ भी कह लो, सुन लिया जाता है ...
अब आख़िर खामोशी के ज़ेवर को उतार कर
कहाँ रख दिया जाए ...शकील ने भी तो कहा है
ज़रा तू ही बता ऐ दिल सुकूँ पाने कहाँ जाएं...
khair...ab अल्फ़ाज़ की बुनावट है या बनावट ,
एक नज़्म हाज़िर है .......


मैंने ...देखा उसे


मैंने देखा उसे
दूर तक ....
खालीपन में...
घंटों....
टकटकी लगा.. देखते हुए

मैंने देखा उसे
ख़ुद ही से रूठ कर
ख़ुद ही पर
एक बेजान-सी खामोशी
ओढे हुए....

मैंने देखा उसे
किसी भी हालात का
शिकवा किए बगैर
बस अपने आप ही से
झगड़ते हुए....

और... .
जब कभी....
उसके क़रीब जा कर
मैंने
ज़रा सा छुआ जो उसे ...

तो...
मैंने देखा उसे

... झट से
अपनी पलकों के कोनों पर उभर आई
नमी को पोंछ ...
बक-बक बड़बड़ाते हुए
बिना वजह ही .....
हँसते हुए....,
बिन बात मुस्कराते हुए.....!!






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Thursday, October 22, 2009

मजबूर बहुत करता है ये दिल तो जुबां को ....अचानक ही
ये गीत ज़हनमें आ गया ..आप सब ने तो सुना ही होगा ...
तसव्वर कीजिये ...ज़िन्दगी कई बार इंसान को इम्तिहानात
और आज़माईश में डाल कर ख़ुद जीत जाती है ...हालात ऐसे
न-साज़गार कि मन का भारीपन होटों की बेजान खामोशी में
तब्दील हो जाता है ..वक़्त की बेरूखी आंखों के खालीपनको भांप कर
और भी शदीद हो उठती है । काश ! बेबसी, कभी इंसान पर इस क़दर
भी न हावी होने पाये ...और ऐसे में खुदावंद का नाम तो
यक़िननबहुत बड़ा संबल बन जाता है ........



ग़ज़ल


दाता , नाम कमाई दे
साँसों में सच्चाई दे

दर्द-ओ-ग़म हँसके सह लूँ
हिम्मत को अफ़्ज़ाई दे

मेहनत-कश लोगों को तू
मेहनत की भरपाई दे

शोरो-गुल में क़ैद हूँ मैं
अब थोड़ी तन्हाई दे

चैन मिले जो यूँ उसको
दे , मुझको , रुसवाई दे

कह लूँ दिल की बात तुम्हें
लफ्ज़ों को सुनवाई दे

एक सनम मेरा भी हो
मुख़लिस , या हरजाई , दे

हर दिल में हो नाम तेरा
हर दिल को ज़ेबाई दे

मेरे नेक ख़यालों को
वुसअत औ` गहराई दे

आँखें रिमझिम भीग सकें
यादों की पुरवाई दे

आँगन-आँगन खुशियाँ हों
घर-घर में रा' नाई दे

कर मुझको तौफ़ीक़ अता
'दानिश' को अगुवाई दे



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afzaaee = vriddhee,,, मुख़लिस=निष्कपट
हरजाई=निष्ठाहीन,,, ज़ेबाई = नैसर्गिक सौन्दर्या
वुस अत=विस्तार,,, रा`नाई= सुन्दरता
मुफ़लिस=मासूम/गरीब
तौफ़ीक़=ईश्वरीय सामर्थ्य
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Wednesday, September 30, 2009

२ अक्तूबर का दिन भारत के इतिहास में ख़ास एहमियत रखता है
इस तिथि को हम सब राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी जी और हमारे
भूतपूर्व प्रधान-मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जनम दिवस
के रूप में मनाते हैं....शास्त्री जी की सादगी और स्वाभिमान पर
और गाँधी जी के अहिंसा के सिद्धांत पर हम सब को गर्व है .......
महात्मा गाँधी जी के व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधना आसान नही ।
एक गीतनुमा कविता प्रस्तुत है ..राष्ट्रपिता को श्रद्धांजली .....


गीत


भारत जब जब दोहराएगा आज़ादी के गान को
सब-जन तब-तब याद करेंगे बापू के बलिदान को


लन्गोती वाले बाबा की , ऐसी एक लड़ाई थी
ना गोला बरसाया कोई , ना तलवार चलाई थी
सत्य अहिंसा के बल पर दुश्मन को धूल चटाई थी
मन की ताक़त ही से उसने रोका हर तूफ़ान को
सब-जन तब-तब याद करेंगे बापू के बलिदान को...


सच की लाठी हाथों में ली, तन पर भक्ति का चोला
पाठ अहिंसा का सिखला कर हर मन में अमृत घोला
आज़ादी के रंग में रँग कर हर भारतवासी बोला
भारत माँ पर अर्पण कर देंगे हम अपनी जान को
सब-जन तब-तब याद करेंगे बापू के बलिदान को...


खादी के ताने-बाने से भारत का इतिहास रचा
हिंदू मुस्लिम सिख इसाई सब में इक विश्वास रचा
सहम गया कुख्यात फिरंगी ऐसा इक अभ्यास रचा
मान गया अंग्रेजी शासन बापू की पहचान को
सब-जन तब-तब याद करेंगे बापू के बलिदान को...


जिस गांधी ने सारे जग में हिन्दुस्तां का नाम किया
उस पर ही इक घातलगा कर अनहोनी ने काम किया
बापू ने बस राम कहा, चिर-निद्रा में विश्राम किया
वक्त नमन करता है हर पल सच्चाई की शान को
सब-जन तब-तब याद करेंगे बापू के बलिदान को .



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Tuesday, September 8, 2009

नमस्कार ।
ज़िन्दगी और मस्रुफियात का भी अजीब सा लेकिन पक्का रिश्ता है
फुर्सत के लम्हे चुरा पाना भी अपने आप में महारत ही है ।
इंसान , आज , जाने कयूं बस अपने आप के बारे में ही सोचने की फितरत
पाले रहने पर मजबूर सा होता जा रहा है । वजह.... वक्त है , हालात हैं , या
हमारा ये चौतरफा ....भाग-दौड़ वाला.... ख़ुद भागता-दौड़ता चौतरफा ....
खैर ....ये कहानी फिर सही ....
आप सब की खिदमत में एक ग़ज़ल लेकर हाज़िर हूँ ......


ग़ज़ल

किसी के कोई काम आओ , तो मानें
कि ख़ुद को कभी आज़माओ, तो मानें

खुशी के पलों में तो हँसते रहे हो
मुसीबत में भी मुस्कराओ , तो मानें

बनावट- नुमा ज़िन्दगी छोड़ कर तुम
हकीक़त से रिश्ता बनाओ , तो मानें

हमेशा चरागों तले है अँधेरा
भरम ये कभी तोड़ पाओ , तो मानें

रहो सामने भी , छिपे भी रहो तुम
मुहब्बत में इतना सताओ , तो मानें

किसी और में खोट कयूं ढूँढ़ते हो
कभी ख़ुद को दरपन दिखाओ, तो मानें

नए दौर के साथ चलते हुए तुम
पुरातन की रस्में निभाओ , तो मानें

परों की नही , बात है हौसलों की
इरादे फ़लक तक बनाओ , तो मानें

खफा हो के मुझसे , कहा ज़िन्दगी ने
मेरे नाज़ हर पल उठाओ , तो मानें

कई ग़मज़दा लोग, 'दानिश', मिलेंगे
उन्हें भी गले से लगाओ , तो मानें




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Tuesday, August 25, 2009

नमस्कार !!
कोई वक्त था कि
खतों कि बड़ी एहमियत हुआ करती थी ....ख़त लिखना , ख़त पढ़ना ,
ख़त का इंतज़ार करना सभी कुछ बहुत अच्छा लगता था ...
और वो ख़त..... जो मानिए आँख की सियाही से लिखे गए हों ...
आंखों में उभरते कतरों के साथ पढ़े गए हों ...
उन खतों की कैफ़ियत का अंदाज़ा तो आप को मालूम
ही होगा ....... खैर ! एक नज़्म आपकी खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ ।



वो ख़त


अभी अभी .......अचानक
दिल में इक एहसास ने अंगडाई ली
एक जाना-पहचाना ,
अपना-सा एहसास
यूँ लगा .....
जैसे
तेरा धुंधला सा कोई अक्स
तेरा खुशबु से भरा इक ख़याल
तेरे क़दमों की मखमली-सी इक आहट
तेरे हाथों की रेशम-सी इक छुअन
ये सब... .
मेरे ज़हनो-दिल को गुदगुदाते हुए
जैसे....
मुझे छू कर गुज़र गए हैं
हाँ ! याद आया !!
आज
तेरे उस ख़त को
देर तक पढ़ते-पढ़ते....
मैंने ....
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था




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Monday, August 10, 2009

kavita

ग़ज़ल की बंदिशों के इलावा कविता या नज़्म की आज़ादी का
अपना ही लुत्फ़ है । कई विद्वान् रचनाकारों द्वारा अच्छी-अच्छी
कविताएँ लिखी जाती हैं और पढने वालों तक ब.खूबी पहुंचाई
जा रही हैं । मन में एक नज़्म का ख़याल आया है ।
अब एक अदना-सी कोशिश है
जो भी है ....मन से है ...मन के लिए है ...आप सब के लिए है ।



उधेड़-बुन





मन की उकताहट ,

मन की बेकली .....

अचानक जब टीस बन करवट लेती है...तो...

जाने कयूं

चुभने-चुभने सा लगता है सब ...

आंखों का सूनापन

होटों पर पसरी चुप्पी

ख़ुद ही से बेगानगी

बेतरह सी उदासी

और कहीं......

अन्दर ही अन्दर

चल पड़ती है इक उधेड़-बुन .....

जैसे

आँख के किसी बेजान क़तरे को

बड़ी हिफाज़त से

लफ्जों में तब्दील करने की कोशिश

ज़हनमें कुलबुलाते किसी गुबार को

खयाली लिबास देने की तड़प

सोच , एहसास , जज़्बात को

इज़हार देने की छटपटाहट ......

और......धीरे-धीरे....

कुछ नक़्श ......

उभरने भी लगते हैं.....

लम्हा-लम्हा पिघलती रात की आगोश में

जाने क्या-क्या समाता चला जाता है

और अगली सुबह ......

एक काग़ज़ के टुकड़े पर

बिखरे पड़े अल्फाज़ को

मैं .......

निहारता हूँ....

फिर अपनी किताबों में संभाल कर रख कर

सोचने लगता हूँ

मानो ....

मैंने कोई कविता कह ली हो ......

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Wednesday, July 22, 2009

"आज की ग़ज़ल" नामक ब्लॉग पर वक्तन ब वक्तन एक तर`ही ग़ज़ल
के लिए (लिखने के लिए) कहा जाता है .... इस बार का मिसरा था ...
"सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है..."
वहाँ नामी-गिरामी अदीब लोगों की ग़ज़लें पढने को मिल जाती हैं
मैंने भी इसी ज़मीन और बहर में ग़ज़ल कही है जो मैं चाहता हूँ कि
आप यहाँ भी पढ़ें ।


ग़ज़ल


सब की नज़रों में सच्चा इंसान वही कहलाता है
जो जीवन में दर्द पराये भी हँस कर सह जाता है

जब उसकी यादों का आँचल आँखों में लहराता है
जिस्म से रूह तलक फिर सब कुछ खुशबु से भर जाता है

रिमझिम-रिमझिम, रुनझुन-रुनझुन बरसें बूंदें सावन की
पी-पी बोल, पपीहा मन को, पी की याद दिलाता है

व्याकुल, बेसुध, सम्मोहित-सी राधा पूछे बारम्बार
देख सखी री ! वृन्दावन में बंसी कौन बजाता है

जीवन का संदेश यही है नित्य नया संघर्ष रहे
परिवर्तन का भाव हमेशा राह नयी दिखलाता है

पौष की रातें जम जाती हैं, जलते हैं आषाढ़ के दिन
तब जाकर सोना फसलों का खेतों में लहराता है

माना ! रात के अंधेरों में सपने गुम हो जाते हैं
सूरज, रोज़ सवेरे फिर से आस के दीप जलाता है

आज यहाँ, कल कौन ठिकाना होगा कुछ मालूम नहीं
जग है एक मुसाफिरखाना, इक आता, इक जाता है

मर जाते हैं लोग कई, दब कर क़र्जों के बोझ तले
रोज़ मगर बाज़ार का सूचक , अंक नए छू जाता है

हों बेहद कमज़ोर इरादे जिनके बस उन लोगों का
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

वादे, यादें , दर्द , नदामत , ग़म , बेचैनी , तन्हाई
इन गहनों से तो अब अपना जीवन भर का नाता है

धूप अगर है, छाँव भी होगी, ऐसा भी घबराना क्या
हर पल उसको फ़िक्र हमारा, जो हम सब का दाता है

हँस दोगे तो, हँस देंगे सब, रोता कोई साथ नहीं
आस जहाँ से रखकर 'दानिश' क्यूं खुद को तड़पाता है


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Saturday, June 13, 2009

जून माह में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है

५ जून, सिर्फ एक ही दिन न बन के रह जाये ।

पर्यावरण की सुरक्षा हम सब का नैतिक कर्त्तव्य है ।

इस हाई-टेक दौर में प्रकृति का क्षरण करना ही

मनुष्य उन्नति करना समझ रहा है ।

तो.....आईये कुछ सोचें,,,विचार करें .....

ये कुछ शब्द हैं....आप तक पहुंचेंगे तो शायद संदेश भी बन पाएं ।





जागो ! संभलो !!




प्रश्न करते हैं अब

पेड़ , पौधे , वन-जंगल

जिन्हें अंधाधुंध काट कर

इतरा रहा है इंसान ..... अपनी प्रगति पर

हरियाली , छाँव , फूलों के सिंगार की जगह

पनप रहे हैं कंक्रीट के जंगल

जिनमें तरस रहा है जीवन

प्राण वायु के लिए ।



फरियाद करती है अब

कलकल बहती स्वच्छ पारदर्शी नदियाँ

जिनमें पल पल ज़हर घोल रही हैं

हमारी रासायनिक असावधानियां , कुव्यवस्थित प्रणालियाँ

जिस से कुपोषित हो रही है जीवन-शैली ।



आह्वान करती हैं

मंद-मंद बहती शीतल हवाएं

जिन में घुल रहा है ज़हरीला, तेज़ाबी धुआँ

प्रदुषण का, बारूदी परीक्षणों का

जिस से छटपटा रहा है

उपभोक्तावाद का आधुनिक प्राणी ।



आज ........

चेता रहे हैं सब

हवा , पानी , पेड़-पौधे..... सारी प्रकृति

सावधान कर रहे हैं इंसान को

जागो ! संभलो !!

..पर्यावरण संभालो !!!

वरना ...... बहुत देर हो जायेगी .......

नही रहेगा फिर सुरक्षा - कवच

और ... न ही रहेगी...... जीवन की सुरक्षा ।



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Tuesday, May 26, 2009

ये ग़ज़ल एक अनोखी रचना है..."अदबी-माला" पत्र में छपने के बाद
इसी के ज़रिये एक दोस्त बना ....मिठू जान...एक... वरिष्ठ श्रेणी
का साहित्यकार...आज भी दोस्त ही है ..एक अच्छा दोस्त ।
कोई कोई रचना अपने आप में कब कया अनूठा दे जाए ...कया पता !!


ग़ज़ल

इब्तिदाए-इश्क़ की राना`इयाँ
इंतिहा- ऐ- शौक़ की रुसवाईयाँ

यूँ रहीं ग़म की करम-फर्माईयाँ
मैं हूँ अब अर् हैं मेरी तन्हाईयाँ

धूप यादों की बढ़ी यूँ दिन ढले
और भी लम्बी हुईं परछाईयाँ

हैं यहाँ खुशियाँ, तो ग़म भी साथ हैं
है कहीं मातम, कहीं शहनाईयाँ

याद आतीं हैं मुझे परदेस में
गाँव , झूले , झूमती अमराईयाँ

रात से कहती हैं क्या, मिल कर गले
चाहतें , मदहोशियाँ , अँगड़ाइयां

तज्रबोँ से उम्र का रिश्ता बढ़ा
अब समझ आने लगीं गहराईयाँ

ज़िन्दगी भर नाज़ ही सहने पड़े
थीं मुक़ाबिल वक़्त की अंगडाईयाँ

अजनबी लगने लगे अपना वुजूद
इस क़दर अच्छी नहीं तन्हाईयाँ

मैं , कि अब ख़ुद को कहाँ ढूँढू बता
जाम -ऐ -शिद्दत, कर अता गहराईयाँ

साफ़-गोई से मिला 'दानिश' को क्या
बेबसी , आवारगी , रुसवाईयाँ ।






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Saturday, May 9, 2009

इधर-उधर की भाग-दौड़ , अफरा-तफरी , और कुछ मुश्किलों में
घिरे रहने के बाद अचानक याद आया कि कुछ लिखना भी तो है ,,
सो ....कोई लम्बी भूमिका नही, बस कुछ सरल-सीधे-से लफ्ज़
एक ग़ज़ल की शक़्ल में हाज़िर करता हूँ


ग़ज़ल


बारहा कयूं उलझती रही ज़िन्दगी
उम्र भर मुझ से लड़ती रही ज़िन्दगी

बालपन से जवानी , बुढापे तलक
नाम अपने बदलती रही ज़िन्दगी

याद की तितलियाँ रक़्स करती रहीं
फूल बन कर महकती रही ज़िन्दगी

लाख तूफ़ान आयें , उठें ज़लज़ले
काम चलना है , चलती रही ज़िन्दगी

एक छूटा बदन , दूसरा मिल गया
सिर्फ़ पैकर बदलती रही ज़िन्दगी

घर के आँगन में नन्ही-सी किलकारियां
मन के झूले में पलती रही ज़िन्दगी

कोख अपनी ही माँ की, बनी कत्लगाह
जन्म से पहले मरती रही ज़िन्दगी

इसको जब भी कहीं कोई 'दानिश' मिला
अपने तेवर बदलती रही ज़िन्दगी

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बारहा= बार-बार
रक्स =नृत्य
ज़लज़ला= भूचाल
पैकर= आकृति , शरीर
कत्लगाह=वध-स्थल



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Wednesday, April 22, 2009

नमस्कार
कविताएँ आप ने पढीं , पसंद फरमाईं ....शुक्रिया !
आप सब मुझ से बेहतर जानते हैं कि कविता लिखना या
ग़ज़ल कहना मन में कहीं गहरे उतर कर ख़ुद से बात करना है ।
मैं जब आप जैसे क़ाबिल दोस्तों के ब्लॉग पर जा कर आपकी
उम्दा रचनाएं पढता हूँ तो मुझे उतना ही सुकून मिलता है ,
जितना किसी रचनाकार को अपनी रचना प्रक्रिया के वक्त मिलता
है ...आपकी कविताएँ , आलेख , ग़ज़लें पढ़ना हमेशा-हमेशा एक
अनुभव रहता है , नई ऊर्जा नई प्रेरणा मिलती है ........
लीजिये ! एक छोटी बहर की नन्ही-सी ग़ज़ल हाज़िरे खिदमत है ।


ग़ज़ल


हादिसों के साथ चलना है
ठोकरें खा कर संभलना है

मुश्किलों की आग में तप कर
दर्द के सांचों में ढलना है

हों अगर कांटे भी राहों में
हर घडी बे-खौफ चलना है

जो अंधेरों को निगल जाए
बन के ऐसा दीप जलना है

वक़्त की जो क़द्र भूले, तो
जिंदगी भर हाथ मलना है

हासिले-परवाज़ हो आसाँ
रुख हवाओं का बदलना है

इन्तेहा-ए-आरजू बन कर
आप के दिल में मचलना है

जिंदगी से दोस्ती कर लो
दूर तक जो साथ चलना है

रात भर तू चाँद बन 'दानिश'
सुब्ह सूरज-सा निकलना है ।



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Thursday, April 9, 2009

मुमकिन है कि आप सब विद्वान् रचनाकार , लेखक , अदब-नवाज़ दोस्त
यहाँ दस्तक दे कर कई बार वापिस चले जाते होंगे ....

अब खज़ाना कम है तो है ....मुफलिस हूँ... तो हूँ......
लेकिन एक वजह ये भी है कि कंप्यूटर पर बहुत कम बैठ पाता हूँ....
पिछली बार की कविता के बाद मन में फिर
जिद पनप उठी है कि एक कविता और आपकी खिदमत में पेश
करुँ....हो सकता है कहीं कुछ कम भी हो...लेकिन जब आप हैं तो
हौसला
हो ही जाता है । .......



कविता


कुछ कम तो है .....

आज भी
रात के इस चुभते-से पहर में
अधलेटा-सा...... वह....
अपना बाज़ू अपने माथे पर टिकाए
फिर सोच रहा है ...
कुछ कम तो है कहीं ....
कहीं कुछ घट-सा गया है....
जिसे तलाशने की कोशिश
आज भी की थी उसने.....
दरवाजों पर लटकी बड़ी-बड़ी बेमाअना सी
झालरों के निष्प्राण रंगों में..
यहाँ वहाँ सजावट के लिए रक्खे
मंहगे-मंहगे बनावटी फूलों में..
एक-दम तीखे, शोख़ रंग-रोगन की ओट में
अपना खुरदरापन छिपाए हुए
बेजान दीवारों में...
इस कोने से उस कोने तक फैली-पसरी
खामोशी की बेजान परतों के आसपास..
और..... अपने-आप में ही सिमटे हुए
वैभव, आधुनिकता, और आडम्बर को ओढे
चलते-फिरते कुछ जिस्मों की हलचल में .....
क्या..... ?
क्या.... ? ?
इस घर से गुम हो चुके
एहसास और भावनाएं
अब इस मकान में वह कभी ढूँढ भी पायेगा भला ...?
सोचता है ....
फिर सोचता है.....
और फिर......... ...
रोज़ की तरह कर्वट बदल कर
सो जाने का बहाना करने लगता है .............




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Saturday, March 28, 2009

कभी कभी मन की सोच उड़ान भरने के प्रयास में
विफल-सी हो जाती है ...आपाधापी की इस दौड़ में
कई बार असहजता का आभास होने लगता है । कहीं तो
सन्दर्भ नही मिल पाते , कहीं समीकरण उलझे हुए
मिलते हैं । कहीं कोई व्यथित मन संवाद-हीनता का
दंश झेलता है , कहीं कुछ कुंठा-ग्रस्त भावनाएं
कोहराम की स्थिति बना देती हैं .....


आज ग़ज़ल की जगह एक कविता लेकर हाज़िर हो
रहा हूँ । बस ! हृदयोदगार है, बाक़ी सब आप पर छोड़ता हूँ । ।



कविता

कैसी कैसी बंदिशों में पल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर जल रहा है आदमी


आधुनिकता की चरम सीमा से भी बढ़ता हुआ
भोग की, उपभोग की लपटों से है झुलसा हुआ
फिर भी मन-दर्पण में अपने-आप से सहमा हुआ
वास्तविकता की चुभन, बेकल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . .

कर्म करके सोचता है, अब मिलेंगे दाम क्या ?
पूछता है हर घड़ी , मेरा कहीं है नाम क्या ?
है पता सब को कि होगा आखिरी परिणाम क्या !

जाने फिर क्यूं अब स्वयं को छल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . .

भूल जाओगे अगर पुरखों के तुम उपदेश को
दूर ही करते रहोगे, ख़ुद से इस परिवेश को
क्यूं भला क़ुदरत करेगी माफ़ झूठे वेश को
किस दिशा की ओर जाने चल रहा है आदमी
जल रहा है , क्यूं निरंतर . . . . . . . . . .

कैसी कैसी बंदिशों में पल रहा है आदमी
जल रहा है, क्यूं निरंतर जल रहा है आदमी

Thursday, March 12, 2009

नमस्कार !
आने में कुछ देर हो गई .....वजह जो भी रही हो, अब जो भी कहूँगा
वो एक बहाना ही लगेगा .......
सब से बड़ा दुश्मन ये कंप्यूटर जिसमे 'हिन्दी में काम'
इसी की मर्ज़ी से ही हो पाता है ।
खैर ! एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ .......
आपकी टिप्पणियाँ हमेशा-हमेशा "प्रेरणा" और "प्रोत्साहन" देती रहेंगी ,
इस का विश्वास है मुझे । . . . . . . .


ग़ज़ल

नाम जब भी आ गया उसका ज़बां पर
फिर कहाँ क़ाबू रहा अश्के - रवां पर

आज भी उस मोड़ पर तनहा खडा हूँ
साथ छोड़ा था मेरा तूने जहाँ पर

वक़्त ने मुझ से सवाल ऐसे किए हैं
एक ख़ामोशी लरज़ती है ज़बां पर

माँगना सब के लिए दिल से दुआएं
कौन जाने , कौन मिल जाए कहाँ पर

दर-हकीक़त दर्द से रिश्ता निभाया
कर लिया दिल ने यकीं जब भी गुमां पर

बर्क़ ! तू लहरा ! ज़रा तो रौशनी दे
क्यूँ नज़र रहती तेरी है आशियाँ पर

कामयाबी अब उसे मिल कर रहेगी
वो नज़र रक्खे हुए है आसमाँ पर

बागबाँ करते हैं ख़ुद कलियों का सौदा
वक़्त कैसा आ पड़ा है गुलसितां पर

मैकशी भी अब दगा देने लगी है
ये सितम इक और जाने-नातवाँ पर

बे-अदब , बे-रब्त , कोई सरफिरा है
तब्सिरा उनका है मेरी दास्ताँ पर

आज फिर इक शख्स सूली पर चढ़ेगा
हैं ख़फ़ा कुछ लोग 'दानिश' के बयाँ पर



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अश्के-रवां= बहते आंसू
बर्क़= आसमानी बिजली
मैकशी=sharaab pina
dagaa=dhokha
जाने-नातवाँ= कमज़ोरजान
बे-अदब=अशिष्ट
बे-रब्त=बे-तुका
तब्सिरा=टिप्पणी
दास्ताँ=कहानी
गुमां=शंका



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Sunday, February 22, 2009

नमस्कार !
एक बार फिर आपसे मुखातिब हूँ ....शुक्रिया के साथ किआप मेरी रचनाएं
पढ़ते हैं , पसंद करते हैं , अपनी टिप्पणियों से मेरी हौसला-अफजाई
करते हैं ...एहसान-मंद हूँ आप सब का । अदब कि दुनिया में आज जाने
कितनी कितनी गजलें कही जा रही हैं । इस में कोई शक नही कि ग़ज़ल
आज कीहर दिल अज़ीज़ विधा बन चुकी है । पुरानी रवायतों को निभाते
हुए ग़ज़ल आज के तल्ख़ माहौल की बातें भी करने लगी है । हुस्नो-इश्क़
विसालो-फिराक़ के इलावा आज के सामाजिक हालात , किसी मज़दूर
की थकन , प्रेरणा , नईरौशनी वगैरा सब तरह की बातें ग़ज़ल में कही जा
रही हैं । इसी के साथ-साथ कुछ लोग ग़ज़ल को हिन्दी-ग़ज़ल और
उर्दू-ग़ज़ल में बांटने की ताक में भी लगे हुए हैं जो अच्छी बात नही है ।
ग़ज़ल तो बस ग़ज़ल है ....इस को किसी ज़बान से बांधना अच्छी बात नही ।
हिन्दी में लिखो तो उर्दू वाले पढ़ते हैं, उर्दू में कहो तो हिन्दी वाले आनंद उठाते हैं
बस देखा तो यही जाता है कि ख्याल क्या है, विषय किस तरह के चुने गये हैं ।
और मेरा तो ये मानना है कि लिपि बदलने से कोई विधा तो नही बदल जाती ...
खैर ! पेशे-खिदमत है एक ग़ज़ल जिसे आज गीतिका, मुक्तिका, तेवरी, इत्यादि
भी कहा जाने लगा है .............


ग़ज़ल

मन में संकल्प लिए पाँव बढ़ाओ तो सही
फल भी मिल जाएगा तुम फ़र्ज़ निभाओ तो सही

सत्य की खोज है तो साथ चलेंगी राहें
दिल की दुनिया में कोई दीप जलाओ तो सही

चाँद पर पाके विजय, माना , सजा ली दुनिया
ज़िन्दगी तुम किसी इन्सां की सजाओ तो सही

दुश्मनी करना तो आसान है दुनिया वालो
बात तब है कि कोई दोस्त बनाओ तो सही

ये जो जीवन है, बहुमूल्य खज़ाना है , सुनो
खर्च भी लेना इसे, पहले कमाओ तो सही

क्यूं इधर और उधर खोज रहे हो उसको
मन के भीतर है वो, तुम सर को झुकाओ तो सही

दूसरों को ही नसीहत जो सदा करते हो
चाहते हो जो, वो ख़ुद कर के दिखाओ तो सही

देर तक आज ग़ज़ल बात करेगी तुमसे
लफ्ज़-दर-लफ्ज़ ज़रा पढ़ के सुनाओ तो सही

दौड़ की होड़ में इंसान भटक बैठा है
आज तहज़ीब कहीं गुम है, बचाओ तो सही

अब कभी दूर न जायेगा किसी भी दिल से
कोशिशें कर भी लो, 'दानिश' को भुलाओ तो सही




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Thursday, February 5, 2009

सभी दोस्तों को सलाम ........!
कुछ अर्सा पहले अंशु प्रकाशन दिल्ली की तरफ़ से
मशहूरो मारूफ़ ग़ज़लकार, एक आलिम फ़ाज़िल शख्सियत
उस्तादे-मोहतरम जनाब 'दरवेश' भारती जी कुशल सम्पादन में
एक नायाब पत्रिका "ग़ज़ल के बहाने" मंज़रे-आम पर आई ....
ग़ज़ल में रूचि रखने वालों के लिए ये रिसाला एक एहम दस्तावेज़
साबित हो रहा है । इस अनूठी पत्रिका में आपके 'मुफलिस' की भी
एक रचना शामिल की गई , सो आज वही ग़ज़ल मैं आप सब
दोस्तों की खिदमत में लेकर हाज़िर हो रहा हूँ .....
उम्मीद है पसंद फरमाएंगे .................................
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ग़ज़ल

वो भली थी, या बुरी, अच्छी लगी
ज़िन्दगी, जैसी मिली, अच्छी लगी

बोझ जो दिल पर था, घुल कर बह गया
आंसुओं की ये नदी अच्छी लगी

चांदनी का लुत्फ़ भी तब मिल सका
जब चमकती धूप भी अच्छी लगी

जाग उट्ठी ख़ुद से मिलने की लगन
आज अपनी बेखुदी अच्छी लगी

दोस्तों की बेनियाज़ी देख कर
दुश्मनों की बेरुखी अच्छी लगी

आ गया अब जूझना हालात से
वक़्त की पेचीदगी अच्छी लगी

ज़हन में 'दानिश' उजाला छा गया
इल्मो-फ़न की रौशनी अच्छी लगी

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Saturday, January 24, 2009

"बस ये चुप-सी लगी है...नही, उदास नही....
"खामोशी के किन्ही लम्हों में बैठे-बैठे ये प्यारा गीत अचानक ही होंटो पर आ गया फिर सोच में यूँ उभरा कि खामोशी की तो कोई मुद्दत नही होती...जब आती है तो घने कोहरे की तरह ज़हनो-दिल को ढके रहती है....कुछ पल, कुछ लम्हें, कुछ रोज़....लेकिन अन्दर ही अन्दर इक उधेड़ -बुन तो रहती ही है...कभी दिल में उठी ख्वाहिशों को दिमाग हकीक़त का आइना दिखा कर चुप करवा देता है, तो कभी दिमाग की ज़िद के आगे दिल की बेबसी साफ़ नज़र आती है.......ऐसे में खामोश रहना जरुरत भी बन जाता है, और मजबूरी भी.........खैर छोडिए...! चलिए कुछ बातें करते हैं...इसी खामोशी की बातें.....आप सब अदब-नवाज़ दोस्तों की खिदमत में एक ग़ज़ल लेकर हाज़िर हूँ....उम्मीद भी है और भरोसा भी....कि आप सराहेंगे भी और कमियाँ भी बतायेंगे ......बस खामोश नही रहेंगे......वादा...?!?
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ग़ज़ल

हर नफ़स में छिपी है खामोशी
रूह तक जा बसी है खामोशी

ज़िन्दगी की तवील राहों में
हर क़दम पर बिछी है खामोशी

मैं तो लफ्जों की भीड़ में गुम हूँ
औ` मुझे ढूँढती है खामोशी

हो गया हूँ क़रीबतर ख़ुद से
जब से मुझको मिली है खामोशी

बात दिल की पहुँच गई दिल तक
काम कुछ कर गई है खामोशी

राज़े - दिल अब इसी से कहता हूँ
दोस्त बन कर मिली है खामोशी

आरिफ़ाना कलाम होता है
जब कभी बोलती है खामोशी

वक़्त पर काम आ गई आख़िर
dekh कितनी भली है खामोशी

हर घड़ी इम्तेहान लेती है
मुझ में क्या ढूँढती है खामोशी

दिन की उलझन से रूठ कर 'दानिश'
रात - भर जागती है खामोशी

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नफ़स=साँस तवील=लम्बी
आरिफाना कलाम=ईश्वरीय वाणी
खामोशी में ख के नीचे बिंदी पढ़ें ,
आठवें शेर में (देख) हिन्दी में ही पढ़ें ,
ठीक आता ही नही था
तकलीफ़ के लिए मुआफ़ीचाहता हूँ
---मुफलिस---
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Thursday, January 8, 2009

ग़ज़ल

दिल की दुनिया में अगर तेरा गुज़र हो जाए
रास्ते साथ दें , आसान सफर हो जाए

जो शनासा - ऐ - रहे - ऐबो - हुनर हो जाए
ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल वो बशर हो जाए

इस तरह नक़्श-ए- क़दम छोड़ कि देखे दुनिया
पाँव रख दे तू जहाँ , राह - गुज़र हो जाए

खौफ़ मरने का, न जीने से शिकायत उसको
जिस पे रहमत से भरी एक नज़र हो जाए

खिल उठी फूल-सी हर शाखे तमन्ना दिल की
अब तो उनसे भी मुलाक़ात अगर हो जाए

अब चलो बाँट लें आपस में वो बीती यादें
ग़म मेरे पास रहें, चैन उधर हो जाए

ख़ुद-ब- ख़ुद शख्स वो मंजिल से भटक जाता है
कामयाबी का नशा उसको अगर हो जाए

ज़िन्दगी जब्र सही , फिर भी जिए जा 'दानिश'
है नही काम ये आसान , मगर, हो जाए।

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शनासा ए रहे ऐबो हुनर= अच्छे बुरे की राह को पहचानने वाला
नक्शे क़दम=पैरों के निशाँ
जब्र=अत्याचार

Thursday, January 1, 2009

इस नए साल में आओ ये इरादा कर लें
दिल में अख़लाक़ ओ ख़ुलूस और ज़ियादा कर लें
ज़ब्त ही कर लें सभी रंज-ओ -अलम दुनिया के
हम दिलो ज़हन को कुछ और कुशादा कर लें

अख़लाक़=शिष्टाचार , ख़ुलूस=आपसी प्यार
ज़ब्त=समो लेना
रंजो अलम=दुःख-तक़्लीफ़
कुशादा=विस्तृत

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