वक़्त हमारे हाथों में नहीं खेलता, हमें ही वक़्त के
हाथों में खेलना पड़ता है.... कभी कभार इंसान को
कुछ तल्ख़ और उदास लम्हों से दो-चार
होना पड़ता है... ऐसे धैर्य की
अंगुली थामे रहना ही वाजिब माना जाता है...
इस जज़्बे के इलावा अगर कुछ काम आ पाता है
तो वो हैं कुछ खास दोस्तों की नेक दुआएं...
लीजिये... एक सादा-सी , छोटी-सी ,
बस यूँ-ही-सी ग़ज़ल हाज़िर है ........
ग़ज़ल
जीवन खेल अजब देखा है
कब, क्या हो, ये कब देखा है
तुझ में अपना रब देखा है
जीने का मतलब देखा है
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
खुशियों में भी ग़म की आहट
वक़्त बड़ा बेढब देखा है
दिल अपना है , दर्द पराया
ये दस्तूर गज़ब देखा है
रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
क्या वो भी यूँ सोचे मुझको
नुक्ता , ग़ौरतलब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'दानिश' ख़ुद को अब देखा है
___________________________
नुक्ता=मर्म की बात , रहस्य,
गौरतलब= ध्यान देने योग्य
____________________________
Wednesday, April 21, 2010
Wednesday, April 7, 2010
छंद-मुक्त काव्य में निपुणता की कसौटी से मैं भी
उतना ही अनभिज्ञ हूँ जितना कि इस विधा में
महारत रखने वाले कुछ अन्य साथी हैं,,,, कई बार
शैली की कसावट की जगह कथन/कथानक को
अधिमान देना ही पर्याप्त समझा जाता है,,,और ये
तथ्य ही इस विधा की सफलता को रेखांकित करता है
उत्तर-आधुनिक काव्य में प्रयुक्त प्रतीक, विम्ब,
उपमाएं इत्यादि, निसंदेह ही इसकी विशेषता जाने जाते हैं
अपने अल्प-ज्ञान को स्वीकारते हुए ही आपके समक्ष एक
कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ... अब क्या करें .....
" जिन्हें जलने की हसरत हो,, वो परवाने कहाँ जाएं..."
और आज ......
इक दौर था वो भी...
हर घर के किसी एक ही कमरे में पड़ा
एक ही टी.वी.
सबका सांझा हुआ करता था
शाम ढलते ही उमड़ पड़ता
देखने वालों का जमावड़ा
सब के सब एक ही जगह ...
सब... इक साथ...पास-पास
सबकी सांझी ख़ुशी, सांझी सोच, सांझी मर्ज़ी
तब ......
घर में सब जन एक थे... सब इक साथ ...
इक दूजे के पास-पास, इक दूजे के साथ-साथ
इक दौर है ये भी ...
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है
सब.... अलग-अलग अपना
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी.
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना
और आज .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
________________________________
________________________________
उतना ही अनभिज्ञ हूँ जितना कि इस विधा में
महारत रखने वाले कुछ अन्य साथी हैं,,,, कई बार
शैली की कसावट की जगह कथन/कथानक को
अधिमान देना ही पर्याप्त समझा जाता है,,,और ये
तथ्य ही इस विधा की सफलता को रेखांकित करता है
उत्तर-आधुनिक काव्य में प्रयुक्त प्रतीक, विम्ब,
उपमाएं इत्यादि, निसंदेह ही इसकी विशेषता जाने जाते हैं
अपने अल्प-ज्ञान को स्वीकारते हुए ही आपके समक्ष एक
कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ... अब क्या करें .....
" जिन्हें जलने की हसरत हो,, वो परवाने कहाँ जाएं..."
और आज ......
इक दौर था वो भी...
हर घर के किसी एक ही कमरे में पड़ा
एक ही टी.वी.
सबका सांझा हुआ करता था
शाम ढलते ही उमड़ पड़ता
देखने वालों का जमावड़ा
सब के सब एक ही जगह ...
सब... इक साथ...पास-पास
सबकी सांझी ख़ुशी, सांझी सोच, सांझी मर्ज़ी
तब ......
घर में सब जन एक थे... सब इक साथ ...
इक दूजे के पास-पास, इक दूजे के साथ-साथ
इक दौर है ये भी ...
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है
सब.... अलग-अलग अपना
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी.
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना
और आज .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
________________________________
________________________________
Subscribe to:
Posts (Atom)