आज जो ग़ज़ल मैं आपसे सांझी करने जा रहा हूँ
उसे आप पहले "आज की ग़ज़ल" ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं
बस मन में आया कि उसी ग़ज़ल को दोहरा लिया जाए...
उम्मीद करता हूँ कि हमेशा की तरह ही
अपनी दुआओं से नवाजेंगे ....
ग़ज़ल
जो सच से ही नज़रें बचा कर चले
समझ लो वो अपना बुरा कर चले
चले, जब भी हम, मुस्कुरा कर चले
हर इक राह में गुल खिला कर चले
हम अपनी यूँ हस्ती मिटा कर चले
मुहव्बत को रूतबा अता कर चले
लबे-बाम हैं वो, मगर हुक़्म है
चले जो यहाँ, सर झुका कर चले
इसे, उम्र भर ही शिकायत रही
बहुत ज़िन्दगी को मना कर चले
वो बादल ज़मीं पर तो बरसे नहीं
समंदर पे सब कुछ लुटा कर चले
चकाचौंध के इस छलावे में हम
खुद अपना ही विरसा भुला कर चले
किताबों में चर्चा उन्हीं की रहा
ज़माने में जो, कुछ नया कर चले
ख़ुदा तो सभी का मददगार है
बशर्ते, बशर इल्तिजा कर चले
कब इस का मैं 'दानिश' भरम तोड़ दूँ
मुझे ज़िन्दगी आज़मा कर चले
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लबे-बाम = अटरिया पर , छत पर ,
अटारी (बालकनी में)
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Sunday, September 26, 2010
Thursday, September 2, 2010
"तर्ज़े बयाँ" की बनावट ही कुछ ऐसी अधूरी और
अटपटी है किमुझे ब्लॉग-जगत में होती रहने वाली आहटों का
समय रहते पता ही नहीं चल पाता,,, कब किसी
ब्लॉग-मित्र द्वारा कोई रचना डाल दी जाती है, उसकी
खबर मुझे अपने ब्लॉग से नहीं हो पाती ....
अत: मैं सभी साथियों से क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैं
मुनासिब वक्त पर वहाँ हाज़िर नहीं हो पाता हूँ।
ख़ैर एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हुआ हूँ .....
ग़ज़ल
चार:गर का फ़ैसला कुछ और है
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ
इम्तिहानों का नशा कुछ और है
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है
जो बशर मालिक की लौ से जुड गया
'दानिश' उसका मर्तबा कुछ और है
_________________________________
_________________________________
चार;गर = चारागर , इलाज करने वाला
रज़ा = मर्ज़ी ,,, पुरसुकून = सुख देने वाली
लफ़्ज़ = शब्द ,,,, मानी = अर्थ
सुख़न = काव्य सृजन
मर्तबा = रूतबा
अटपटी है किमुझे ब्लॉग-जगत में होती रहने वाली आहटों का
समय रहते पता ही नहीं चल पाता,,, कब किसी
ब्लॉग-मित्र द्वारा कोई रचना डाल दी जाती है, उसकी
खबर मुझे अपने ब्लॉग से नहीं हो पाती ....
अत: मैं सभी साथियों से क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैं
मुनासिब वक्त पर वहाँ हाज़िर नहीं हो पाता हूँ।
ख़ैर एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हुआ हूँ .....
ग़ज़ल
चार:गर का फ़ैसला कुछ और है
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ
इम्तिहानों का नशा कुछ और है
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है
जो बशर मालिक की लौ से जुड गया
'दानिश' उसका मर्तबा कुछ और है
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चार;गर = चारागर , इलाज करने वाला
रज़ा = मर्ज़ी ,,, पुरसुकून = सुख देने वाली
लफ़्ज़ = शब्द ,,,, मानी = अर्थ
सुख़न = काव्य सृजन
मर्तबा = रूतबा
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