तो घने कोहरे की तरह ज़हनो-दिल को ढके रहती है....
कुछ पल, कुछ लम्हें, कुछ रोज़....
कभी, दिल में उठी ख्वाहिशों को दिमाग, हकीक़त का आइना दिखा कर चुप करवा देता है,
तो कभी दिमाग की ज़िद के आगे दिल की बेबसी साफ़ नज़र आती है.......
ऐसे में खामोश रहना जरुरत भी बन जाता है, और मजबूरी भी.....
ग़ज़ल
हर क़दम पर बिछी है ख़ामोशी
रूह तक जा बसी है ख़ामोशी
ज़िन्दगी की तवील राहों में
फ़र्ज़ की बेबसी है ख़ामोशी
मैं तो लफ्जों की भीड़ में गुम हूँ
औ` मुझे ढूँढती है ख़ामोशी
हो गया हूँ क़रीबतर ख़ुद से
जब से मुझको मिली है ख़ामोशी
बात दिल की पहुँच गई दिल तक
काम कुछ कर गई है ख़ामोशी
राज़े - दिल अब इसी से कहता हूँ
दोस्त बन कर मिली है ख़ामोशी
आरिफ़ाना कलाम होती है
जब कभी बोलती है ख़ामोशी
वक़्त पर काम आ गई आख़िर
देख , कितनी भली है ख़ामोशी
वक़्त पर काम आ गई आख़िर
देख , कितनी भली है ख़ामोशी
क्यूं मेरा इम्तेहान लेती है
मुझ में क्या ढूँढती है ख़ामोशी
दिन की उलझन से हार कर 'दानिश'
रात-भर जागती है ख़ामोशी
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तवील=लम्बी
औ`= और
आरिफ़ाना कलाम=ब्रहम सन्देश
करीबतर=ज्यादा समीप _____________________________________