Thursday, March 8, 2012

कुछ रास्ते, तो मानो बंद गलियों की तरह
रुक-से जाते हैं .... ढूँढना, बस ढूँढना ही
चारा रह जाता है ,,, कभी कभी ....
एक ग़ज़ल हाज़िर करता हूँ ...

ग़ज़ल



जो तेरे साथ-साथ चलती है

वो हवा, रुख़ बदल भी सकती है


क्या ख़बर, ये पहेली हस्ती की

कब उलझती है, कब सुलझती है


वक़्त, औ` उसकी तेज़-रफ़्तारी

रेत मुट्ठी से ज्यों फिसलती है


मुस्कुराता है घर का हर कोना

धूप आँगन में जब उतरती है


ज़िन्दगी में है बस यही ख़ूबी

ज़िन्दगी-भर ही साथ चलती है


ज़िक्र कोई, कहीं चले , लेकिन

बात तुम पर ही आ के रूकती है


ग़म, उदासी, घुटन, परेशानी

मेरी इन सबसे खूब जमती है


अश्क लफ़्ज़ों में जब भी ढलते हैं

ज़िन्दगी की ग़ज़ल सँवरती है


नाख़ुदा, ख़ुद हो जब ख़ुदा 'दानिश'

टूटी कश्ती भी पार लगती है


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Sunday, February 12, 2012

वक़्त और हालात की अपनी अलग चाहतें हैं
मन का बहलना या बुझ जाना,
सब इन्हीं चाहतों के वश में ही रहता है
किसी तरह के भी ख़ालीपन को भरते रहने की कोशिश
करते रहना अहम भी है और ज़रूरी भी .
ख़ैर , एक ग़ज़ल के चंद शेर हाज़िर हैं ......



ग़ज़ल

शौक़ दिल के पुराने हुए
हम भी गुज़रे ज़माने हुए

बात, आई-गई हो गई
ख़त्म सारे फ़साने हुए

आपसी वो कसक अब कहाँ
बस बहाने , बहाने हुए

दूरियाँ और मजबूरियाँ
उम्र-भर के ख़ज़ाने हुए

आँख ज्यों डबडबाई मेरी
सारे मंज़र सुहाने हुए

याद ने भी किनारा किया
ज़ख्म भी अब पुराने हुए

दिल में है जो, वो लब पर नहीं
दोस्त सारे सयाने हुए

भूल पाना तो मुमकिन न था
शाइरी के बहाने हुए

ख़ैर , 'दानिश' तुम्हे क्या हुआ
क्यूँ अलग अब ठिकाने हुए

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Saturday, January 7, 2012

मौसम का दबदबा क़ाइम है ... सर्दी पूरे शबाब पर है
सूर्य देव के दीदार भी नहीं हो पा रहे हैं,, और सुबह शाम की
धुंद और घने कोहरे से हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता
बस हैं तो जगह-जगह छोटे-बड़े अलाव,, थोड़ी-थोड़ी मूंगफली,,
गुड वाली गचक...और आपके लिए... ग़ज़ल के कुछ शेर.... !!


ग़ज़ल

ज़रा-ज़रा-सी बात पे वो झूट बोलता तो है
उसी का एतबार बार-बार कर लिया तो है

फ़ज़ा-फ़ज़ा महक गयी, समाँ बहक गया तो है
क़रीब आके, गुनगुना के, उसने कुछ कहा तो है

भला नहीं, बुरा सही, ख़याल में उसी के हूँ
शिकायतों में ही सही मुझे वो सोचता तो है

घिरी हैं जो भँवर में, वो भी पार होंगीं कश्तियाँ
यक़ीन-ए-नाख़ुदा नहीं , नवाज़िश-ए-ख़ुदा तो है

गया जहाँ कहीं भी वो, भुला सका न घर कभी
तलाश-ए-रोज़गार में वो दर-ब-दर फिरा तो है

सिमट चुका है आज हर बशर बस अपने आप में
कि जज़्ब-ए-दुआ-ओ-ख़ैर आज घट गया तो है

ख़ला तलाशने की आज हो रही हैं कोशिशें
हयात-ए-बदगुमान का सुराग़-सा मिला तो है

अदब-शनास, रुशनास 'दानिश'-ए-अज़ीम तू
ख़ुदा भला करे तेरा , तू ख़ुद से आशना तो है

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फ़ज़ा=वातावरण/चौतरफा
यक़ीन-ए-नाख़ुदा=नाविक का भरोसा
नवाज़िश-ए-खुदा=भगवान् कि कृपा
ख़ला=अन्तरिक्ष
हयात-ए-बदगुमान=संदिग्ध जीवन/जीवन के आसार
जज़्ब-ए-दुआ-ओ-ख़ैर=भलाई और नेकी की भावनाएं
अदब-शनास=साहित्य का ज्ञाता
रुशनास=परिचित/वाक़िफ़
अज़ीम=महान
आशना=परिचित
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