पंकज मालिक का गाया हुआ एक गीत याद आ रहा है
"करूँ क्या आस निरास भई....",,,, कुछ ऐसी ही उधेड़-बुन से हो कर
गुज़रते हुए सोचते-सोचते ज़हन में ये बात भी आई कि
दुआओं में असर होता है...बहुत असर होता है
किसी की दुआएं आपके काम आ जाती हैं ,,,और आपकी दुआएं भी
किसी के काम आ सकती हैं..... यक़ीनन....
इबादत
माना ,
कि मुश्किल है
बहुत मुश्किल
इस तेज़ रौ ज़िन्दगी की
हर ज़रुरत में
हर पल किसी के काम आ पाना
इस भागते-दौड़ते वक्त में
हर क़दम
किसी का साथ दे पाना
इस अपने आप तक सिमटे दौर के
हर दुःख में
किसी का सहारा बन पाना
हाँ ! बहुत मुश्किल है
लेकिन
कुछ ऐसा भी मुश्किल तो नहीं
ख़ुदा से
अपने लिए की गयी बंदगी के नेक पलों में
किसी और के लिए भी दुआएं करते रहना
अपना भला चाहते-चाहते
दूसरों का भी भला मांगते रहना ....
सच्ची इबादत....
अब इसके सिवा
और...
हो भी तो क्या !!
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Sunday, July 25, 2010
Saturday, July 3, 2010
नमस्कार
दूरी... भला किसे अच्छी लगती है,, हाँ , ये और बात है
कि वक़्त और हालात इस बात की इजाज़त ना दें कि
इंसान हर बार अपनी ज़िद और मर्ज़ी चला सके ...
लीजिये ... एक ग़ज़ल हाज़िर-ए-ख़िदमत है .........
ग़ज़ल
कब , किसको , क्या देना है , ख़ुद आँके है
ऊपर वाला , पोथी सब की जाँचे है
खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है
क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है
खूब सजा रहता है छप्पन-भोग कहीं
और कोई बस रूखी-सूखी फाँके है
है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की
पल-पल गगरी छलके, मनवा काँपे है
जो क़िस्मत में लिक्खा है , मिल जाएगा
हाथों की तू व्यर्थ लक़ीरें बाँचे है
है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है
जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'दानिश' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है
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दूरी... भला किसे अच्छी लगती है,, हाँ , ये और बात है
कि वक़्त और हालात इस बात की इजाज़त ना दें कि
इंसान हर बार अपनी ज़िद और मर्ज़ी चला सके ...
लीजिये ... एक ग़ज़ल हाज़िर-ए-ख़िदमत है .........
ग़ज़ल
कब , किसको , क्या देना है , ख़ुद आँके है
ऊपर वाला , पोथी सब की जाँचे है
खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है
क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है
खूब सजा रहता है छप्पन-भोग कहीं
और कोई बस रूखी-सूखी फाँके है
है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की
पल-पल गगरी छलके, मनवा काँपे है
जो क़िस्मत में लिक्खा है , मिल जाएगा
हाथों की तू व्यर्थ लक़ीरें बाँचे है
है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है
जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'दानिश' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है
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