Wednesday, July 27, 2011

कुछ एक बातों का दोहरा दिया जाना,
खामोशी के किन्हीं ज़्यादा खिंच गए पलों को
कम करने में कारगर साबित होता है ...
कुछ कहने से, कुछ कह दिया गया कहते रहना ,
आपको अपनी मौजूदगी का अहसास दिला ही जाता
है...
फेस बुक पर छपी एक ग़ज़ल यहाँ भी हाज़िर है,,,
आप इसे ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं !!




ग़ज़ल


दाता , नाम कमाई दे

साँसों में सच्चाई दे


दर्द--ग़म हँसके सह लूँ

हिम्मत को अफ़ज़ाई दे


मेहनत-कश लोगों को तू

मेहनत की भरपाई दे


शोरो-गुल में क़ैद हूँ मैं

थोड़ी-सी तन्हाई दे


चैन मिले जो यूँ उसको

दे , मुझको , रुसवाई दे


मन की इक-इक बात कहूँ

लफ्ज़ों को सुनवाई दे


एक सनम मेरा भी हो

मुख़लिस , या हरजाई , दे


हर दिल में हो नाम तेरा

हर दिल को ज़ेबाई दे


मेरे नेक ख़यालों को

वुसअत ` गहराई दे


आँगन-आँगन खुशियाँ हों

घर-घर में रा'नाई दे


पल-पल सच्ची राह चुनूँ

'दानिश' को अगुवाई दे


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अफजाई=अफ्जायिश/वृद्धि

मुख्लिस=निश्छल/सद्भावक

ज़ेबाई=श्रृंगार/सजावट

वुस अत =विस्तार/सामर्थ्य

रा`नाई= सुन्दरता/छटा/सौन्दर्य

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Saturday, July 9, 2011

मन के भावों को शब्दों के हवाले किये जाने तक की
कशमकश में खुद से रुबरु होना तो तय होता ही है ,
अपने आस-पास को भी खुद तक ला पाने का काम
कर लेना
भी लाज़िम होता रहे तो इक लय बनी रहती है
कुछ, जाने-पहचाने-से
अश`आर, ग़ज़ल की शक्ल में
हाज़िर हैं ......



ग़ज़ल


रहे क़ायम, जहाँ में प्यार , प्यारे
फले - फूले ये कारोबार प्यारे

सुकून-औ-चैन की ही खुशबुएँ हों
सदा खिलता रहे गुलज़ार प्यारे

जियो खुद, और जीने दो सभी को
यही हो ज़िन्दगी का सार प्यारे

हमेशा ही ज़माने से शिकायत ?
कभी ख़ुद से भी हो दो-चार, प्यारे

शुऊर-ए-ज़िन्दगी फूलों से
सीखो
करो तस्लीम हँस कर ख़ार प्यारे

लहू का रंग सबका एक-सा है
तो फिर आपस में क्यूँ तकरार प्यारे

महोब्बत की तड़प में भी मज़ा है
सुकूँ देता है ये आज़ार प्यारे

किसी को क्या पड़ी, सोचे किसी को
सभी अपने लिए बीमार, प्यारे

तुम्हें जी-भरके अपना प्यार देगी
करो तो, ज़िन्दगी से प्यार, प्यारे

यही है फलसफा-ए-इश्क़ , 'दानिश',
जो डूबा है, वही है पार, प्यारे


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गुलज़ार=बग़ीचा
शुऊरएज़िन्दगी= जीने का सलीक़ा
तस्लीम=स्वीकार
आज़ार= रोग
फलसफा=सिद्धांत, दर्शन

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