और कागज़ के किन्हीं टुकड़ों पर लिखी रह गईं कुछ तहरीरें
अचानक आवाज़ देने लगतीं हैं...बिसरी यादों पर भले ही
कोई बस न चल पाए,, लेकिन कुछ लिखतें तो क़ाबू में आ ही
जाती हैं... एक पुरानी ग़ज़ल, जिसके कुछ शेर आप पहले भी
पढ़ चुके होंगे,,, कुछ तरमीम /संशोधन के बाद फिर से आपसे
साँझा कर रहा हूँ... ... ... ...
ग़ज़ल
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला
आज़माईश तो ग़लत- फ़हमी बढ़ा देती है
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला
दिल तलक जाने का रस्ता भी तो निकला दिल से
वो शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला
कोई सरहद न कभी रोक सकी रिश्तों को
ख़ुशबुओं पर, न कभी कोई भी पहरा निकला
रोज़ सड़कों पे गरजती हुई दहशत-गर्दी
रोज़, हर रोज़ शराफ़त का जनाज़ा निकला
तू सितम करने में माहिर, मैं सितम सहने में
ज़िन्दगी ! तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला
यूँ तो काँधों पे वो इक भीड़ लिये फिरता है
ग़ौर से देखा, तो हर शख्स ही तनहा निकला
रंग कोई है ज़माने का, न दुनियादारी
लोग सब हँसते हैं, 'दानिश' तू भला क्या निकला
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