Tuesday, May 31, 2011

कई बार, ज़हन में समाई कुछ पुरानीयादें
और कागज़ के किन्हीं टुकड़ों पर लिखी रह गईं कुछ तहरीरें
अचानक आवाज़ देने लगतीं हैं...बिसरी यादों पर भले ही

कोई बस चल पाए,, लेकिन कुछ लिखतें तो क़ाबू में ही

जाती हैं... एक पुरानी ग़ज़ल, जिसके कुछ शेर आप पहले भी

पढ़ चुके होंगे,,, कुछ तरमीम /संशोधन के बाद फिर से आपसे

साँझा कर रहा
हूँ... ... ... ...




ग़ज़ल


हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला

आज़माईश तो ग़लत- फ़हमी बढ़ा देती है
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला

दिल तलक जाने का रस्ता भी तो निकला दिल से
वो शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला

कोई सरहद न कभी रोक सकी रिश्तों को
ख़ुशबुओं पर, न कभी कोई भी पहरा निकला

रोज़ सड़कों पे गरजती हुई दहशत-गर्दी
रोज़, हर रोज़ शराफ़त का जनाज़ा निकला


तू सितम करने में माहिर, मैं सितम सहने में
ज़िन्दगी ! तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला

यूँ तो काँधों पे वो इक भीड़ लिये फिरता है
ग़ौर से देखा, तो हर शख्स ही तनहा निकला

रंग कोई है ज़माने का, दुनियादारी
लोग सब हँसते हैं, 'दानिश' तू भला क्या निकला


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Sunday, May 8, 2011

पहले से दिए गए निर्धारित वाक्य (तरही मिसरा)
"उसका पावन मन देखा है" के लिए बरेली के वरिष्ठ साहित्यकार
श्री शिवनाथ बिस्मिल जी द्वारा "नई लेखनी" के प्रवेशांक के लिए
गज़लें मंगवाई गईं थीं... उस अंक में कुछ ब्लोगर साथियों की भी
बहुत अच्छी गज़लें प्रकाशित हुई हैं
इसी सिलसिले में कही गयी ग़ज़ल के कुछ शेर
आपकी खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ.......



ग़ज़ल


हर पल है अड़चन , देखा है
ये जग इक बंधन देखा है

सुन्दर प्रेम-सपन देखा है
जीवन अभिनन्दन देखा है

अनसुलझे कुछ प्रश्न मिले हैं
जब जब मन-दरपन देखा है

इस दुनिया की, दिल वालों से
रहती है अनबन , देखा है

दिल बँट जाने से ही अक्सर
बँटता घर-आँगन देखा है

मेहनत और लगन का ही तो
दुनिया में वंदन देखा है

आस-निराश भरे पथ पर ही
जीवन परिचालन देखा है

सीख न पाया तौर जफ़ा के
हाँ , तुझ-सा भी बन देखा है

लागी नाहीं छूटे रामा
कर-कर लाख जतन देखा है

"दानिश" प्रेम-बिना जग सूना
है अनमोल कथन , देखा है


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