Wednesday, July 22, 2009

"आज की ग़ज़ल" नामक ब्लॉग पर वक्तन ब वक्तन एक तर`ही ग़ज़ल
के लिए (लिखने के लिए) कहा जाता है .... इस बार का मिसरा था ...
"सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है..."
वहाँ नामी-गिरामी अदीब लोगों की ग़ज़लें पढने को मिल जाती हैं
मैंने भी इसी ज़मीन और बहर में ग़ज़ल कही है जो मैं चाहता हूँ कि
आप यहाँ भी पढ़ें ।


ग़ज़ल


सब की नज़रों में सच्चा इंसान वही कहलाता है
जो जीवन में दर्द पराये भी हँस कर सह जाता है

जब उसकी यादों का आँचल आँखों में लहराता है
जिस्म से रूह तलक फिर सब कुछ खुशबु से भर जाता है

रिमझिम-रिमझिम, रुनझुन-रुनझुन बरसें बूंदें सावन की
पी-पी बोल, पपीहा मन को, पी की याद दिलाता है

व्याकुल, बेसुध, सम्मोहित-सी राधा पूछे बारम्बार
देख सखी री ! वृन्दावन में बंसी कौन बजाता है

जीवन का संदेश यही है नित्य नया संघर्ष रहे
परिवर्तन का भाव हमेशा राह नयी दिखलाता है

पौष की रातें जम जाती हैं, जलते हैं आषाढ़ के दिन
तब जाकर सोना फसलों का खेतों में लहराता है

माना ! रात के अंधेरों में सपने गुम हो जाते हैं
सूरज, रोज़ सवेरे फिर से आस के दीप जलाता है

आज यहाँ, कल कौन ठिकाना होगा कुछ मालूम नहीं
जग है एक मुसाफिरखाना, इक आता, इक जाता है

मर जाते हैं लोग कई, दब कर क़र्जों के बोझ तले
रोज़ मगर बाज़ार का सूचक , अंक नए छू जाता है

हों बेहद कमज़ोर इरादे जिनके बस उन लोगों का
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

वादे, यादें , दर्द , नदामत , ग़म , बेचैनी , तन्हाई
इन गहनों से तो अब अपना जीवन भर का नाता है

धूप अगर है, छाँव भी होगी, ऐसा भी घबराना क्या
हर पल उसको फ़िक्र हमारा, जो हम सब का दाता है

हँस दोगे तो, हँस देंगे सब, रोता कोई साथ नहीं
आस जहाँ से रखकर 'दानिश' क्यूं खुद को तड़पाता है


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