Saturday, December 31, 2011

नई दस्तक, नए आसार ओ साथी
सँवर जाने को हैं तैयार ओ साथी
नया साल आए, तो ऐसा ही अब आए
मने, हर दिल में ही त्यौहार ओ साथी

सभी साथियों को
नव वर्ष - २०१२ के लिए
ढेरों शुभकामनाएँ

दुआ है, कि आने वाला ये साल
आप सब के लिए
नई उम्मीदें
नए रास्ते
नई मंज़िलें
नई सफलताएँ लेकर आए...
आप सब खुश रहें ,
खुशहाल रहें
और...अपनी साहित्यिक रुचियों के साथ
यूं ही बने रहें,,जुड़े रहें
आमीन !!

"दानिश"
(डी के सचदेवा)

Wednesday, December 14, 2011

जीवन में निरंतरता, जीवन की ही द्योतक है, जीवन का ही पर्याय है
प्रत्येक प्रकार की रचना-प्रक्रिया इसीलिए ही संभव हो पाती है
लेकिन रचनात्मकता का प्रभाव, विराम के क्षणों में भी
रहता है....-विराम या विश्राम के पलों का अपना महत्त्व है .
और अब....

शब्दों का एक जुड़ाव-सा हुआ है, प्रस्तुत करा रहा हूँ ...



बस, इतना तो है ही


यूं ही कहीं
तनहाई के किन्हीं खाली पलों में
ख़यालात के कोरे पन्नों पर
जब
खिंचने लगें
कुछ आड़ी-तिरछी सी लक़ीरें
बुन-सा जाए
यादों का इक ताना-बाना
रचने लगे
इक अपनी-सी दुनिया

.... ......
फिर वह सब ...
कोई कविता , गीत , ग़ज़ल
हो न हो...
बस इतना तो है ही
ख़ुद से मुलाक़ात का
इक बहाना तो हो ही जाता है .

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Tuesday, November 29, 2011

पल-पल , छिन-छिन सरकते सरकते जाने कब
बड़े लम्हों में तब्दील हो जाते हैं ... अहसास तब होता है
जब यूँ लगने लगता है कि वक़्त का एक बड़ा हिस्सा
आने वाले वक़्त के एक और हिस्से को सामने लाने के लिये
हमसे विदा ले चुका है .... लीजिये एक ग़ज़ल हाज़िर करता हूँ ।



ग़ज़ल


माना , कि मुश्किलें हैं , रहे-ख़ारदार में
बदलेगा वक़्त , गुल भी खिलेंगे बहार में

यादों में तेरी , फिर भी , उलझना पसंद है
उलझी तो है हयात, ग़म--रोज़गार
में

इंसान को जाने है ख़ुद पर ग़ुरूर
क्यूँ
है ज़िन्दगी , मौत ही जब इख़्तियार में

मानो , तो सब है बस में , मानो, तो कुछ नहीं
इतना-सा ही तो फ़र्क़ है बस जीत-हार में

चाहत , यक़ीन , फ़र्ज़ , वफ़ा , प्यार , दोस्ती
कल रात कह गया था मैं, क्या-क्या, ख़ुमार
में

नफ़रत के ज़ोर पर तो किसी को कुछ मिला
पा लेता है बशर तो, ख़ुदा को भी प्यार
में

तय की गई थीं जिन पे घरों की
हिफाज़तें
शामिल रहे थे लोग वही , लूट-मार
में

और आज़माओ मुझको अभी , मेरी हसरतो
बाक़ी बहुत जगह है दिल--दाग़दार
में

"दानिश" अब उनसे कह दो, आएँ वो आज
भी
मिलने लगा है मुझको सुकूँ, इन्तज़ार में




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रहे-खारदार = कंटीली राह
हयात = ज़िन्दगी
ग़म ए रोज़गार = दुनियावी उलझने/कामकाज की चिंता
इख्तियार में = बस में/क़ाबू में
दिल ए दागदार = क़ुसूरवार/बदनाम दिल
सुकूँ = आनंद
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Thursday, November 3, 2011

नमस्कार
परिस्थितियों की रुकावटें मन की ख्वाहिशों पर
हमेशा भारी रहती हैं . कुछ ऐसी मजबूरियाँ/मुश्किलें रहीं
कि पिछले दो-तीन माह से मैं आप सब साहित्यकार मित्रों के
ब्लॉग पर उपस्थित न हो पाया . इस बात के लिए मैं आप सबसे
क्षमा चाहता हूँ ... आप सबकी आमद मेरे लिए हमेशा ही
प्रेरणा और उत्साहवर्द्धन का स्रोत रही है , जिसके लिए
धन्यवाद कहना मात्र एक औपचारिकता पूरी करने जैसा ही होगा .
लीजिये एक ग़ज़ल लेकर हाज़िर-ए-ख़िदमत हूँ ........





ग़ज़ल



बात रखिए , तो ख़ूबतर रखिए
लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ कुछ हुनर रखिए

आसमानों तलक नज़र रखिए
और ख़्वाबों को हमसफ़र रखिए

जो भी करना है, कर गुज़रना है
यूँ न दिल में अगर-मगर रखिए

कीजिये आस के दिये रौशन
आँधियों पर भी कुछ नज़र रखिए

जो फ़ना कर दे मुस्कराहट को
उस उदासी को ताक़ पर रखिए

मौत ही ज़िन्दगी का आख़िर है
क्यूँ भला दिल में कोई डर रखिए

दिल में भी ताज़गी हो फूलों की
ज़हन भी खुशबुओं से तर रखिए

ज़िन्दगी तो ख़ुदा की नेमत है
चाह जीने की उम्र-भर रखिए

खोए रहिये न ख़ुद-तलक "दानिश"
कुछ ज़माने की भी ख़बर रखिए


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Wednesday, October 5, 2011

नमस्कार
पिछले माह राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किये गये
हिंदी-दिवस समारोह के सिलसिले में
श्रीनाथद्वारा , उदयपुर (राजस्थान) जाने का अवसर प्राप्त हुआ
देश के विभिन्न प्रान्तों से साहित्यकारों, समआलोचकों, ग़ज़लकारों ,
पत्रकारों इत्यादि ने अपने अनुपम और उपयोगी विचारों से
सभी साहित्य प्रेमियों के ज्ञान में अपार वृद्धि की.
साहित्य-मंडल, नाथद्वारा और हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा
कुछ प्रमुख साहित्यकारों को पुरस्कृत अलंकृत भी किया गया .
लेकिन क्या यह सम्मान अपना उचित सम्मान पा भी रहे हैं ...
कुछ ऐसी ही दशा इस काव्य में ..........



आख़िर . . .


आखिर....
बता ही दिया गया उसे
कि यह सब ठीक नहीं
बेकार ही है यह सब
सो ,
उतरवा दिए जाने चाहियें
दीवारों पर सजे सब सम्मान-पत्र
हटा दीं जानी चाहियें
शेल्फ में रक्खीं विभिन्न ट्राफियाँ
समेट दिए जाने चाहियें
ड्राईंग रूम में लटकते कुछ अलंकार-मैडल
रख दिए जाने चाहियें कहीं और ही
टेबुल पर बिखरे कुछ साहित्य नुमा पन्नें ...
.... .... ............
आवाज़ें , ज़ोर पकडती रहीं
आँखें , निरीह तकती रहीं
और
कुछ उपयोगी दिमाग़
बस इतना बुदबुदा ,
शांत हो गए ...
"आख़िर,, बच गया घर ,
..... इक अजायब-घर होने से"


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Sunday, September 4, 2011

खामोशी की तो कोई मुद्दत नही होती...जब आती है
तो घने कोहरे की तरह ज़हनो-दिल को ढके रहती है....
कुछ पल, कुछ लम्हें, कुछ रोज़....
कभी, दिल में उठी ख्वाहिशों को दिमाग, हकीक़त का आइना दिखा कर चुप करवा देता है,
तो कभी दिमाग की ज़िद के आगे दिल की बेबसी साफ़ नज़र आती है.......
ऐसे में खामोश रहना जरुरत भी बन जाता है, और मजबूरी भी.....



ग़ज़ल



हर क़दम पर बिछी है ख़ामोशी
रूह तक जा बसी है ख़ामोशी

ज़िन्दगी की तवील राहों में
फ़र्ज़ की बेबसी है
ख़ामोशी

मैं तो लफ्जों की भीड़ में गुम हूँ
औ` मुझे ढूँढती है ख़ामोशी

हो गया हूँ क़रीबतर ख़ुद से
जब से मुझको मिली है ख़ामोशी

बात दिल की पहुँच गई दिल तक
काम कुछ कर गई है ख़ामोशी

राज़े - दिल अब इसी से कहता हूँ
दोस्त बन कर मिली है
ख़ामोशी

आरिफ़ाना कलाम
होती है
जब कभी बोलती है ख़ामोशी

वक़्त पर काम आ गई आख़िर
देख , कितनी भली है
ख़ामोशी

क्यूं मेरा इम्तेहान लेती है
मुझ में क्या ढूँढती है
ख़ामोशी

दिन की उलझन से हार कर 'दानिश'
रात-भर जागती है ख़ामोशी


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तवील=लम्बी
औ`= और
आरिफ़ाना कलाम=ब्रहम सन्देश
करीबतर=ज्यादा समीप
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Wednesday, July 27, 2011

कुछ एक बातों का दोहरा दिया जाना,
खामोशी के किन्हीं ज़्यादा खिंच गए पलों को
कम करने में कारगर साबित होता है ...
कुछ कहने से, कुछ कह दिया गया कहते रहना ,
आपको अपनी मौजूदगी का अहसास दिला ही जाता
है...
फेस बुक पर छपी एक ग़ज़ल यहाँ भी हाज़िर है,,,
आप इसे ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं !!




ग़ज़ल


दाता , नाम कमाई दे

साँसों में सच्चाई दे


दर्द--ग़म हँसके सह लूँ

हिम्मत को अफ़ज़ाई दे


मेहनत-कश लोगों को तू

मेहनत की भरपाई दे


शोरो-गुल में क़ैद हूँ मैं

थोड़ी-सी तन्हाई दे


चैन मिले जो यूँ उसको

दे , मुझको , रुसवाई दे


मन की इक-इक बात कहूँ

लफ्ज़ों को सुनवाई दे


एक सनम मेरा भी हो

मुख़लिस , या हरजाई , दे


हर दिल में हो नाम तेरा

हर दिल को ज़ेबाई दे


मेरे नेक ख़यालों को

वुसअत ` गहराई दे


आँगन-आँगन खुशियाँ हों

घर-घर में रा'नाई दे


पल-पल सच्ची राह चुनूँ

'दानिश' को अगुवाई दे


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अफजाई=अफ्जायिश/वृद्धि

मुख्लिस=निश्छल/सद्भावक

ज़ेबाई=श्रृंगार/सजावट

वुस अत =विस्तार/सामर्थ्य

रा`नाई= सुन्दरता/छटा/सौन्दर्य

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Saturday, July 9, 2011

मन के भावों को शब्दों के हवाले किये जाने तक की
कशमकश में खुद से रुबरु होना तो तय होता ही है ,
अपने आस-पास को भी खुद तक ला पाने का काम
कर लेना
भी लाज़िम होता रहे तो इक लय बनी रहती है
कुछ, जाने-पहचाने-से
अश`आर, ग़ज़ल की शक्ल में
हाज़िर हैं ......



ग़ज़ल


रहे क़ायम, जहाँ में प्यार , प्यारे
फले - फूले ये कारोबार प्यारे

सुकून-औ-चैन की ही खुशबुएँ हों
सदा खिलता रहे गुलज़ार प्यारे

जियो खुद, और जीने दो सभी को
यही हो ज़िन्दगी का सार प्यारे

हमेशा ही ज़माने से शिकायत ?
कभी ख़ुद से भी हो दो-चार, प्यारे

शुऊर-ए-ज़िन्दगी फूलों से
सीखो
करो तस्लीम हँस कर ख़ार प्यारे

लहू का रंग सबका एक-सा है
तो फिर आपस में क्यूँ तकरार प्यारे

महोब्बत की तड़प में भी मज़ा है
सुकूँ देता है ये आज़ार प्यारे

किसी को क्या पड़ी, सोचे किसी को
सभी अपने लिए बीमार, प्यारे

तुम्हें जी-भरके अपना प्यार देगी
करो तो, ज़िन्दगी से प्यार, प्यारे

यही है फलसफा-ए-इश्क़ , 'दानिश',
जो डूबा है, वही है पार, प्यारे


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गुलज़ार=बग़ीचा
शुऊरएज़िन्दगी= जीने का सलीक़ा
तस्लीम=स्वीकार
आज़ार= रोग
फलसफा=सिद्धांत, दर्शन

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Sunday, June 19, 2011

प्रकृति के क़रीब होना, अपने-आप के क़रीब होना ही है
क़ुदरत खिलखिलाती है मानो ज़िन्दगी खिलखिलाती है

खुले आसमान में आज़ादी से उड़ते परिंदे हर बार
अपनी मासूम ज़बान में किसी ना किसी

रूप में कोई ना कोई अच्छा पैग़ाम दे ही जाते हैं....
ख़ैर,,, एक नज़्म हाज़िर--ख़िदमत है .........





नन्ही चिड़िया



रोज़ सुबह
भोर के उजले पहर में
सूरज की मासूम किरणों सँग
मेरे घर की तन्हा मुंडेर पर
वक्त की पाबंदी
और
फ़र्ज़ की बंदिशों से बेख़बर
इक नन्ही-सी चिड़िया
यहाँ-वहाँ बिखरा
दाना-दुनका चुगती
उडती ,
फुदकती ,
चहचहाती है
शुक्र अल्लाह !!
आज ऐसी भीड़ में भी
ज़िन्दगी...
कुछ पल ही सही
हँसती ,
खेलती ,
मुस्कराती है ...



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Tuesday, May 31, 2011

कई बार, ज़हन में समाई कुछ पुरानीयादें
और कागज़ के किन्हीं टुकड़ों पर लिखी रह गईं कुछ तहरीरें
अचानक आवाज़ देने लगतीं हैं...बिसरी यादों पर भले ही

कोई बस चल पाए,, लेकिन कुछ लिखतें तो क़ाबू में ही

जाती हैं... एक पुरानी ग़ज़ल, जिसके कुछ शेर आप पहले भी

पढ़ चुके होंगे,,, कुछ तरमीम /संशोधन के बाद फिर से आपसे

साँझा कर रहा
हूँ... ... ... ...




ग़ज़ल


हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला

आज़माईश तो ग़लत- फ़हमी बढ़ा देती है
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला

दिल तलक जाने का रस्ता भी तो निकला दिल से
वो शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला

कोई सरहद न कभी रोक सकी रिश्तों को
ख़ुशबुओं पर, न कभी कोई भी पहरा निकला

रोज़ सड़कों पे गरजती हुई दहशत-गर्दी
रोज़, हर रोज़ शराफ़त का जनाज़ा निकला


तू सितम करने में माहिर, मैं सितम सहने में
ज़िन्दगी ! तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला

यूँ तो काँधों पे वो इक भीड़ लिये फिरता है
ग़ौर से देखा, तो हर शख्स ही तनहा निकला

रंग कोई है ज़माने का, दुनियादारी
लोग सब हँसते हैं, 'दानिश' तू भला क्या निकला


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Sunday, May 8, 2011

पहले से दिए गए निर्धारित वाक्य (तरही मिसरा)
"उसका पावन मन देखा है" के लिए बरेली के वरिष्ठ साहित्यकार
श्री शिवनाथ बिस्मिल जी द्वारा "नई लेखनी" के प्रवेशांक के लिए
गज़लें मंगवाई गईं थीं... उस अंक में कुछ ब्लोगर साथियों की भी
बहुत अच्छी गज़लें प्रकाशित हुई हैं
इसी सिलसिले में कही गयी ग़ज़ल के कुछ शेर
आपकी खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ.......



ग़ज़ल


हर पल है अड़चन , देखा है
ये जग इक बंधन देखा है

सुन्दर प्रेम-सपन देखा है
जीवन अभिनन्दन देखा है

अनसुलझे कुछ प्रश्न मिले हैं
जब जब मन-दरपन देखा है

इस दुनिया की, दिल वालों से
रहती है अनबन , देखा है

दिल बँट जाने से ही अक्सर
बँटता घर-आँगन देखा है

मेहनत और लगन का ही तो
दुनिया में वंदन देखा है

आस-निराश भरे पथ पर ही
जीवन परिचालन देखा है

सीख न पाया तौर जफ़ा के
हाँ , तुझ-सा भी बन देखा है

लागी नाहीं छूटे रामा
कर-कर लाख जतन देखा है

"दानिश" प्रेम-बिना जग सूना
है अनमोल कथन , देखा है


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Tuesday, April 12, 2011

नमस्कार
इस बार फिर वक़्त के इस बड़े फासले को मैं मिटा नहीं पाया
पता नहीं कैसे, दूरियों और मजबूरियों में इक अजब-सा रिश्ता पनप उठता है
इस बीच आप सब मित्रों को पढ़ते रहना तो होता ही रहा
लीजिये... एक ग़ज़ल आपकी खिदमत में हाज़िर करता हूँ


ग़ज़ल


ख़ुशी में , ख़ुशी से गुज़र हो गई
नहीं ग़म , अगर आँख तर हो गई

किसी की नज़र हमसफ़र हो गई
बड़ी खुशनुमा रहगुज़र हो गई

उसे ही मिले ज़िंदगी के निशाँ
ख़ुद अपनी जिसे कुछ ख़बर हो गई

शराफ़त तो है इक कमी आजकल
मगर जालसाज़ी, हुनर हो गई

ग़म ए यार मेहमाँ हुआ रात-भर
'ज़रा आँख झपकी, सहर हो गई'

बशर, दायरों में ही बँटता गया
नज़र , हर नज़र , कम-नज़र हो गई

बस इक आरज़ू थी , बस इक इंतज़ार
हयात इस क़दर मुख़्तसर हो गई

भुला दूँ उसे, जब ये मांगी दुआ
न फ़रियाद क्यूँ बे-असर हो गई

कभी कुछ दिलासे , कभी कुछ भरम
बस ऐसे ही 'दानिश' बसर हो गई


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आँख तर = भीगी हुई आँखें
हयात = ज़िंदगी
मुख़्तसर = संक्षिप्त , (यहाँ) सिमट चुकी
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Sunday, March 13, 2011

रंगों और उमंगों के त्यौहार होली की आमद है
नफ़रत और बैर-भाव बाक़ी ना रहे,, लोगों में अम्नो-अमान
और आपसी भाईचारा बना रहे...इन्ही दुआओं के साथ

आप सब को ढेरों मुबारकबाद




ग़ज़ल



जब करें वो , जीत की या हार की बातें करें
लोग, अब तो जंग की , हथियार की बातें करें


क्या ज़रूरी है कि हम तक़रार की बातें करें
, कि मिल बैठें कभी, कुछ प्यार की बातें करें


रंग होली के , बसंती राग , बैसाखी का ढोल ,
मौसमों का ज़िक्र हो , त्यौहार की बातें करें


वक़्त है , फुर्सत भी है , मौक़ा भी है , दस्तूर भी

अब चलो, दिल खोल कर दिलदार की बातें करें


ज़िन्दगी के साज़ पर छेड़ें तराने हम नए

गीत की, संगीत की , झंकार की बातें करें

इस बदलते दौर में हम क्यों रहें पीछे भला

वक़्त के साथी बनें , रफ़्तार की बातें करें


अब फ़क़त ये आस, लफ़्ज़ों तक रह जाए कहीं

ख़्वाब सच्चे हों , इसी आसार की बातें करें


है यही वाजिब कि 'दानिश' ज़िक्र-ए-जन्नत छोड़ कर

हम इसी दुनिया , इसी संसार की बातें
करें




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तकरार=झगड़ा
वाजिब=उचित
ज़िक्र--जन्नत= स्वर्ग(काल्पनिक) लोक की चर्चाएं

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Saturday, February 19, 2011

पिछले दिनों आदरणीय श्री पंकज सुबीर जी केब्लॉग पर
एक तरही मिसरा मश्क़ के लिये दिया गया था,,
"नए साल में नए गुल खिलें, नयी खुशबुएँ नए रंग हों"
मिसरा अपने आप में बहुत अनूठा रहा, मन में समा जाने वाला..

इसी मिसरे को लेकर
कुछ शेर हो गये हैं
जो आप सब की खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ.......





ग़ज़ल


हों बुझे-बुझे, कि खिले-खिले, वो बने रहें, या कि भंग हों
तेरी सोच के सभी सिलसिले, तेरे अपने मन की तरंग हों


तेरी ज़िंदगी, हो वो ज़िंदगी, जो किसी के काम भी सके
तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग
हों

है पड़ोसी वो, तो भले पड़ोसी का फ़र्ज़ भो तो निभाए वो
करे कुछ ऐसी वो हरक़तें, जो हमेशा बाईस--जंग हों


यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , उसूल कोई, ढंग
हों

यूँ फ़रोग़--इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल
यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, रदीफ़--क़ाफ़िये तंग हों

मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों

चलो 'दानिश'
अब ये दुआ करें , हों सभी दिलों में ये ख्वाहिशें
हो कोई भी दुःख, सभी साथ हों, हो कोई ख़ुशी, सभी संग हों


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प्रसंग=चर्चे/वार्तालाप
बाईस--जंग=युद्ध/झगड़े का कारण
फरोग--इल्म=ज्ञान वृद्धि/विद्या प्रसार

रदीफ़--क़ाफिये=ग़ज़ल की व्याकरण से सम्बंधित घटक
(तुकांत इत्यादि)
अनंग=देह रहित/बिना श़क्ल
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Tuesday, February 1, 2011

पिछ्ला बहुत सारा वक़्त साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती-सुमन'
के ग़ज़ल विशेषांक की देख रेख में ही गुज़रा,,,
इस दौरान दोस्तों का सहयोग , शमूलियत और शिकायतें
सब साथ साथ रहे... विशेषांक, अपने पाठकों तक पहुँच रहा है
आप चाहें, तो डॉ आनंद सुमन सिंह (मुख्य सम्पादक) से
०९४१२०-०९००० पर संपर्क करके उसे हासिल कर सकते हैं।
आपकी खिदमत में
एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ .....




ग़ज़ल



शिकायत भी, तकल्लुफ़ भी, बहाना भी
मुझे, मन्ज़ूर है उसका सताना भी


मुसलसल इम्तेहाँ , बेचैनियाँ पल-पल
न रास आया हमें दिल का लगाना भी

बिना मतलब मेरी तनक़ीद कर-कर के
मुझे वो चाहता है आज़माना भी

नयापन आज का, माना, ज़रूरी है
सुख़न में चाहिए लहजा पुराना भी

हमेशा हम निभाएं तौर दुनिया के ?
कभी सोचे तो आख़िर कुछ ज़माना भी

यक़ीनन, मैं उसे महसूस करता हूँ
कभी ज़ाहिर, कभी कुछ ग़ायबाना भी


हमेशा ज़िन्दगी से इश्क़ फ़रमाया
मिज़ाज अपना रहा कुछ शायराना भी

बुरा वक़्त आये, तो देना जवाब ऐसे
उदास आँखों से 'दानिश' मुस्कराना भी




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तकल्लुफ़=औपचारिकता
मुसलसल=लगातार, निरंतर
तनक़ीद=आलोचना, टीका-टिप्पणी
सुख़न=काव्य-प्रक्रिया, वार्ता
तौर=शैली, पद्वति
ज़ाहिर=स्पष्टत:, प्रकट
ग़ायबाना=अस्पष्ट, अनुपस्थित
मिज़ाज=स्वभाव
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Wednesday, January 12, 2011

शब्द को जब आवाज़ मिल पाए , तो उसे ख़ामोशी से
लगाव होने लगता है... लेकिन, ख़ामोशी, हमेशा मुनासिब
जान ली जाए,, ये बात भी मुनासिब नहीं जान पड़ती ...
स्वामी विवेकानंद जी के किसी क़ौल को कुछ शब्द
देने की कोशिश करते हुए आप सब से एक छोटी-सी
नज़्म सांझा करना चाहता हूँ ........




विश्वास की डगर



माना,
कि बुरा है
जीवन में ....
किसी भूलवश
'कुछ' खो देना

माना,
कि और भी बुरा है
जीवन में....
किसी अज्ञानतावश
'और भी कुछ' खो देना

लेकिन...
सब से ज़यादा बुरा
है
जीवन में,
किसी हताशावश
इस 'कुछ' और 'बहुत कुछ' खोये को
वापिस पा सकने की
उम्मीद को ही खो देना ....


विश्वास की डगर ही
जीवन की डगर है .........






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आप सब को लोहरी के त्योहार
और मकर संक्राति की शुभकामनाएं
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