Saturday, December 31, 2011
Wednesday, December 14, 2011
प्रत्येक प्रकार की रचना-प्रक्रिया इसीलिए ही संभव हो पाती है
लेकिन रचनात्मकता का प्रभाव, विराम के क्षणों में भी
रहता है....-विराम या विश्राम के पलों का अपना महत्त्व है .
और अब....
शब्दों का एक जुड़ाव-सा हुआ है, प्रस्तुत करा रहा हूँ ...
बस, इतना तो है ही
यूं ही कहीं
तनहाई के किन्हीं खाली पलों में
ख़यालात के कोरे पन्नों पर
जब
खिंचने लगें
कुछ आड़ी-तिरछी सी लक़ीरें
बुन-सा जाए
यादों का इक ताना-बाना
रचने लगे
इक अपनी-सी दुनिया
.... ......
फिर वह सब ...
कोई कविता , गीत , ग़ज़ल
हो न हो...
बस इतना तो है ही
ख़ुद से मुलाक़ात का
इक बहाना तो हो ही जाता है .
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Tuesday, November 29, 2011
बड़े लम्हों में तब्दील हो जाते हैं ... अहसास तब होता है
जब यूँ लगने लगता है कि वक़्त का एक बड़ा हिस्सा
आने वाले वक़्त के एक और हिस्से को सामने लाने के लिये
हमसे विदा ले चुका है .... लीजिये एक ग़ज़ल हाज़िर करता हूँ ।
ग़ज़ल
माना , कि मुश्किलें हैं , रहे-ख़ारदार में
बदलेगा वक़्त , गुल भी खिलेंगे बहार में
यादों में तेरी , फिर भी , उलझना पसंद है
उलझी तो है हयात, ग़म-ए-रोज़गार में
इंसान को न जाने है ख़ुद पर ग़ुरूर क्यूँ
है ज़िन्दगी , न मौत ही जब इख़्तियार में
मानो , तो सब है बस में , न मानो, तो कुछ नहीं
इतना-सा ही तो फ़र्क़ है बस जीत-हार में
चाहत , यक़ीन , फ़र्ज़ , वफ़ा , प्यार , दोस्ती
कल रात कह गया था मैं, क्या-क्या, ख़ुमार में
नफ़रत के ज़ोर पर तो किसी को न कुछ मिला
पा लेता है बशर तो, ख़ुदा को भी प्यार में
तय की गई थीं जिन पे घरों की हिफाज़तें
शामिल रहे थे लोग वही , लूट-मार में
और आज़माओ मुझको अभी , मेरी हसरतो
बाक़ी बहुत जगह है दिल-ए-दाग़दार में
"दानिश" अब उनसे कह दो, न आएँ वो आज भी
मिलने लगा है मुझको सुकूँ, इन्तज़ार में
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रहे-खारदार = कंटीली राह
हयात = ज़िन्दगी
ग़म ए रोज़गार = दुनियावी उलझने/कामकाज की चिंता
इख्तियार में = बस में/क़ाबू में
दिल ए दागदार = क़ुसूरवार/बदनाम दिल
सुकूँ = आनंद
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Thursday, November 3, 2011
Wednesday, October 5, 2011
Sunday, September 4, 2011
ज़िन्दगी की तवील राहों में
फ़र्ज़ की बेबसी है ख़ामोशी
मैं तो लफ्जों की भीड़ में गुम हूँ
औ` मुझे ढूँढती है ख़ामोशी
हो गया हूँ क़रीबतर ख़ुद से
जब से मुझको मिली है ख़ामोशी
बात दिल की पहुँच गई दिल तक
काम कुछ कर गई है ख़ामोशी
राज़े - दिल अब इसी से कहता हूँ
दोस्त बन कर मिली है ख़ामोशी
आरिफ़ाना कलाम होती है
वक़्त पर काम आ गई आख़िर
देख , कितनी भली है ख़ामोशी
क्यूं मेरा इम्तेहान लेती है
मुझ में क्या ढूँढती है ख़ामोशी
दिन की उलझन से हार कर 'दानिश'
रात-भर जागती है ख़ामोशी
Wednesday, July 27, 2011
खामोशी के किन्हीं ज़्यादा खिंच गए पलों को
कम करने में कारगर साबित होता है ...
कुछ न कहने से, कुछ कह दिया गया कहते रहना ,
आपको अपनी मौजूदगी का अहसास दिला ही जाता है...
फेस बुक पर छपी एक ग़ज़ल यहाँ भी हाज़िर है,,,
आप इसे ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं !!
ग़ज़ल
दाता , नाम कमाई दे
साँसों में सच्चाई दे
दर्द-ओ-ग़म हँसके सह लूँ
हिम्मत को अफ़ज़ाई दे
मेहनत-कश लोगों को तू
मेहनत की भरपाई दे
शोरो-गुल में क़ैद हूँ मैं
थोड़ी-सी तन्हाई दे
चैन मिले जो यूँ उसको
दे , मुझको , रुसवाई दे
मन की इक-इक बात कहूँ
लफ्ज़ों को सुनवाई दे
एक सनम मेरा भी हो
मुख़लिस , या हरजाई , दे
हर दिल में हो नाम तेरा
हर दिल को ज़ेबाई दे
मेरे नेक ख़यालों को
वुसअत औ` गहराई दे
आँगन-आँगन खुशियाँ हों
घर-घर में रा'नाई दे
पल-पल सच्ची राह चुनूँ
'दानिश' को अगुवाई दे
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अफजाई=अफ्जायिश/वृद्धि
मुख्लिस=निश्छल/सद्भावक
ज़ेबाई=श्रृंगार/सजावट
वुस अत =विस्तार/सामर्थ्य
रा`नाई= सुन्दरता/छटा/सौन्दर्य
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Saturday, July 9, 2011
कशमकश में खुद से रुबरु होना तो तय होता ही है ,
अपने आस-पास को भी खुद तक ला पाने का काम
कर लेना भी लाज़िम होता रहे तो इक लय बनी रहती है
कुछ, जाने-पहचाने-से अश`आर, ग़ज़ल की शक्ल में
हाज़िर हैं ......
ग़ज़ल
रहे क़ायम, जहाँ में प्यार , प्यारे
फले - फूले ये कारोबार प्यारे
सुकून-औ-चैन की ही खुशबुएँ हों
सदा खिलता रहे गुलज़ार प्यारे
जियो खुद, और जीने दो सभी को
यही हो ज़िन्दगी का सार प्यारे
हमेशा ही ज़माने से शिकायत ?
कभी ख़ुद से भी हो दो-चार, प्यारे
शुऊर-ए-ज़िन्दगी फूलों से सीखो
करो तस्लीम हँस कर ख़ार प्यारे
तो फिर आपस में क्यूँ तकरार प्यारे
महोब्बत की तड़प में भी मज़ा है
सुकूँ देता है ये आज़ार प्यारे
किसी को क्या पड़ी, सोचे किसी को
सभी अपने लिए बीमार, प्यारे
तुम्हें जी-भरके अपना प्यार देगी
करो तो, ज़िन्दगी से प्यार, प्यारे
यही है फलसफा-ए-इश्क़ , 'दानिश',
जो डूबा है, वही है पार, प्यारे
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गुलज़ार=बग़ीचा
शुऊरएज़िन्दगी= जीने का सलीक़ा
तस्लीम=स्वीकार
आज़ार= रोग
फलसफा=सिद्धांत, दर्शन
Sunday, June 19, 2011
क़ुदरत खिलखिलाती है मानो ज़िन्दगी खिलखिलाती है
खुले आसमान में आज़ादी से उड़ते परिंदे हर बार
अपनी मासूम ज़बान में किसी ना किसी
रूप में कोई ना कोई अच्छा पैग़ाम दे ही जाते हैं....
ख़ैर,,, एक नज़्म हाज़िर-ए-ख़िदमत है .........
नन्ही चिड़िया
रोज़ सुबह
भोर के उजले पहर में
सूरज की मासूम किरणों सँग
मेरे घर की तन्हा मुंडेर पर
वक्त की पाबंदी
और
फ़र्ज़ की बंदिशों से बेख़बर
इक नन्ही-सी चिड़िया
यहाँ-वहाँ बिखरा
दाना-दुनका चुगती
उडती ,
फुदकती ,
चहचहाती है
शुक्र अल्लाह !!
आज ऐसी भीड़ में भी
ज़िन्दगी...
कुछ पल ही सही
हँसती ,
खेलती ,
मुस्कराती है ...
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Tuesday, May 31, 2011
और कागज़ के किन्हीं टुकड़ों पर लिखी रह गईं कुछ तहरीरें
अचानक आवाज़ देने लगतीं हैं...बिसरी यादों पर भले ही
कोई बस न चल पाए,, लेकिन कुछ लिखतें तो क़ाबू में आ ही
जाती हैं... एक पुरानी ग़ज़ल, जिसके कुछ शेर आप पहले भी
पढ़ चुके होंगे,,, कुछ तरमीम /संशोधन के बाद फिर से आपसे
साँझा कर रहा हूँ... ... ... ...
ग़ज़ल
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला
आज़माईश तो ग़लत- फ़हमी बढ़ा देती है
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला
दिल तलक जाने का रस्ता भी तो निकला दिल से
वो शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला
कोई सरहद न कभी रोक सकी रिश्तों को
ख़ुशबुओं पर, न कभी कोई भी पहरा निकला
रोज़ सड़कों पे गरजती हुई दहशत-गर्दी
रोज़, हर रोज़ शराफ़त का जनाज़ा निकला
तू सितम करने में माहिर, मैं सितम सहने में
ज़िन्दगी ! तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला
यूँ तो काँधों पे वो इक भीड़ लिये फिरता है
ग़ौर से देखा, तो हर शख्स ही तनहा निकला
रंग कोई है ज़माने का, न दुनियादारी
लोग सब हँसते हैं, 'दानिश' तू भला क्या निकला
Sunday, May 8, 2011
Tuesday, April 12, 2011
Sunday, March 13, 2011
नफ़रत और बैर-भाव बाक़ी ना रहे,, लोगों में अम्नो-अमान
और आपसी भाईचारा बना रहे...इन्ही दुआओं के साथ
आप सब को ढेरों मुबारकबाद ।
ग़ज़ल
जब करें वो , जीत की या हार की बातें करें
लोग, अब तो जंग की , हथियार की बातें करें
क्या ज़रूरी है कि हम तक़रार की बातें करें
आ, कि मिल बैठें कभी, कुछ प्यार की बातें करें
रंग होली के , बसंती राग , बैसाखी का ढोल ,
मौसमों का ज़िक्र हो , त्यौहार की बातें करें
वक़्त है , फुर्सत भी है , मौक़ा भी है , दस्तूर भी
अब चलो, दिल खोल कर दिलदार की बातें करें
ज़िन्दगी के साज़ पर छेड़ें तराने हम नए
गीत की, संगीत की , झंकार की बातें करें
इस बदलते दौर में हम क्यों रहें पीछे भला
वक़्त के साथी बनें , रफ़्तार की बातें करें
अब फ़क़त ये आस, लफ़्ज़ों तक न रह जाए कहीं
ख़्वाब सच्चे हों , इसी आसार की बातें करें
है यही वाजिब कि 'दानिश' ज़िक्र-ए-जन्नत छोड़ कर
हम इसी दुनिया , इसी संसार की बातें करें
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तकरार=झगड़ा
वाजिब=उचित
ज़िक्र-ए-जन्नत= स्वर्ग(काल्पनिक) लोक की चर्चाएं
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Saturday, February 19, 2011
एक तरही मिसरा मश्क़ के लिये दिया गया था,,
"नए साल में नए गुल खिलें, नयी खुशबुएँ नए रंग हों"
मिसरा अपने आप में बहुत अनूठा रहा, मन में समा जाने वाला..
इसी मिसरे को लेकर कुछ शेर हो गये हैं
जो आप सब की खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ.......
ग़ज़ल
हों बुझे-बुझे, कि खिले-खिले, वो बने रहें, या कि भंग हों
तेरी सोच के सभी सिलसिले, तेरे अपने मन की तरंग हों
तेरी ज़िंदगी, हो वो ज़िंदगी, जो किसी के काम भी आ सके
तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग हों
है पड़ोसी वो, तो भले पड़ोसी का फ़र्ज़ भो तो निभाए वो
न करे कुछ ऐसी वो हरक़तें, जो हमेशा बाईस-ए-जंग हों
यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों
यूँ फ़रोग़-ए-इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल
यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, न रदीफ़-ओ-क़ाफ़िये तंग हों
मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों
चलो 'दानिश' अब ये दुआ करें , हों सभी दिलों में ये ख्वाहिशें
हो कोई भी दुःख, सभी साथ हों, हो कोई ख़ुशी, सभी संग हों
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प्रसंग=चर्चे/वार्तालाप
बाईस-ए-जंग=युद्ध/झगड़े का कारण
फरोग-ए-इल्म=ज्ञान वृद्धि/विद्या प्रसार
रदीफ़-ओ-क़ाफिये=ग़ज़ल की व्याकरण से सम्बंधित घटक
(तुकांत इत्यादि)
अनंग=देह रहित/बिना श़क्ल
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Tuesday, February 1, 2011
के ग़ज़ल विशेषांक की देख रेख में ही गुज़रा,,,
इस दौरान दोस्तों का सहयोग , शमूलियत और शिकायतें
सब साथ साथ रहे... विशेषांक, अपने पाठकों तक पहुँच रहा है
आप चाहें, तो डॉ आनंद सुमन सिंह (मुख्य सम्पादक) से
०९४१२०-०९००० पर संपर्क करके उसे हासिल कर सकते हैं।
आपकी खिदमत में एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ .....
ग़ज़ल
शिकायत भी, तकल्लुफ़ भी, बहाना भी
मुझे, मन्ज़ूर है उसका सताना भी
मुसलसल इम्तेहाँ , बेचैनियाँ पल-पल
न रास आया हमें दिल का लगाना भी
बिना मतलब मेरी तनक़ीद कर-कर के
मुझे वो चाहता है आज़माना भी
नयापन आज का, माना, ज़रूरी है
सुख़न में चाहिए लहजा पुराना भी
हमेशा हम निभाएं तौर दुनिया के ?
कभी सोचे तो आख़िर कुछ ज़माना भी
यक़ीनन, मैं उसे महसूस करता हूँ
कभी ज़ाहिर, कभी कुछ ग़ायबाना भी
हमेशा ज़िन्दगी से इश्क़ फ़रमाया
मिज़ाज अपना रहा कुछ शायराना भी
बुरा वक़्त आये, तो देना जवाब ऐसे
उदास आँखों से 'दानिश' मुस्कराना भी
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तकल्लुफ़=औपचारिकता
मुसलसल=लगातार, निरंतर
तनक़ीद=आलोचना, टीका-टिप्पणी
सुख़न=काव्य-प्रक्रिया, वार्ता
तौर=शैली, पद्वति
ज़ाहिर=स्पष्टत:, प्रकट
ग़ायबाना=अस्पष्ट, अनुपस्थित
मिज़ाज=स्वभाव
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Wednesday, January 12, 2011
लगाव होने लगता है... लेकिन, ख़ामोशी, हमेशा मुनासिब
जान ली जाए,, ये बात भी मुनासिब नहीं जान पड़ती ...
स्वामी विवेकानंद जी के किसी क़ौल को कुछ शब्द
देने की कोशिश करते हुए आप सब से एक छोटी-सी
नज़्म सांझा करना चाहता हूँ ........
विश्वास की डगर
माना,
कि बुरा है
जीवन में ....
किसी भूलवश
'कुछ' खो देना
माना,
कि और भी बुरा है
जीवन में....
किसी अज्ञानतावश
'और भी कुछ' खो देना
लेकिन...
सब से ज़यादा बुरा है
जीवन में,
किसी हताशावश
इस 'कुछ' और 'बहुत कुछ' खोये को
वापिस पा सकने की
उम्मीद को ही खो देना ....
विश्वास की डगर ही
जीवन की डगर है .........
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आप सब को लोहरी के त्योहार
और मकर संक्राति की शुभकामनाएं
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