भोर
तुम्हारे आने से
मेरे जीवन में जैसे
फिर से भोर हो गयी है
गगन में अब फिर
परिंदे चहकने लगे हैं
और इनका अपने घरों के लिए
तिनके बटोरना
मुझे फिर अच्छा लगने लगा है
ये खुशबुओं के काफिले जैसे
तेरा ही नाम गुनगुना रहे हैं
चढ़ते सूरज की लालिमा
मुझे फिर
संवारने को उत्सुक है
मेरे कान फिर
मन्दिर की घंटियों की गूँज से
स्वरमयी होने लगे हैं
और मेरा सर
स्वयं ही बंदगी के लिए झुक गया है
--------दानिश भारती--------
10 comments:
मुफलिसजी
बहुत ही सुन्दर और आशावादी कविता से आपने हिन्दी चीट्ठों कीशुरुआत की, इस सुन्दर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें।
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक स्वागत है। आपकी दो तीन टिप्पणियाँ मेरे संगीत वाले चिट्ठे पर मिली, उत्साह वर्धन और मेरे संग्रह के गीतों को पसन्द करने के लिए भी धन्यवाद।
सेटिंग्स में जा कर वर्ड वेरिफिकेशन को हटा दें तो अच्छा होगा, यह टिप्पणी करने वालों को बहुत परेशान करता है।
बधाइयाँ मुफलिस जी , ऐसे नहीं चलेगा.. कुछ गुल्ले वुल्ले ...? हमें तो आपकी गजलों का इंतजार है।
जल्दी...
bahut sundar mere bhai.
meri taraf se badhaai
bhor mein aapne colours bhar diye hai . maza aa gaya aapko padhkar
aur chahiye
vijay
maine bhi ek bhor likhi hai , jo kabhi publish karunga
wo aap jitni khoobsurat nahi hai .
bus yun hi
vijay
भोर के साथ ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है .
बस आप उजाले बांटे हम लोगों के लिए .
Anupamji, aapka dhanyaavaad. Aapke amulya vicharo se to sb ko prerna aur sukhad anubhav milte haiN.
---MUFLIS---
Bahut sundar rachna bahut-bahut badhai..
सँवारे चढ़ते सूरज की किरण जिसका रुख-ऐ-रोशन,
हाँ होता है वो शहंशाह, वो कोई "मुफलिस" नहीं होता..!
खुबसुरत रचना, बधाई ।
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