Wednesday, November 19, 2008

भोर

तुम्हारे आने से
मेरे जीवन में जैसे
फिर से भोर हो गयी है
गगन में अब फिर
परिंदे चहकने लगे हैं
और इनका अपने घरों के लिए
तिनके बटोरना
मुझे फिर अच्छा लगने लगा है
ये खुशबुओं के काफिले जैसे
तेरा ही नाम गुनगुना रहे हैं
चढ़ते सूरज की लालिमा
मुझे फिर
संवारने को उत्सुक है
मेरे कान फिर
मन्दिर की घंटियों की गूँज से
स्वरमयी होने लगे हैं
और मेरा सर
स्वयं ही बंदगी के लिए झुक गया है

--------दानिश भारती--------

10 comments:

सागर नाहर said...

मुफलिसजी

बहुत ही सुन्दर और आशावादी कविता से आपने हिन्दी चीट्ठों कीशुरुआत की, इस सुन्दर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें।
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक स्वागत है। आपकी दो तीन टिप्पणियाँ मेरे संगीत वाले चिट्ठे पर मिली, उत्साह वर्धन और मेरे संग्रह के गीतों को पसन्द करने के लिए भी धन्यवाद।
सेटिंग्स में जा कर वर्ड वेरिफिकेशन को हटा दें तो अच्छा होगा, यह टिप्पणी करने वालों को बहुत परेशान करता है।

हरकीरत ' हीर' said...

बधाइयाँ मुफलिस जी , ऐसे नहीं चलेगा.. कुछ गुल्‍ले वुल्‍ले ...? हमें तो आपकी गजलों का इंतजार है।
जल्‍दी...

daanish said...
This comment has been removed by the author.
vijay kumar sappatti said...

bahut sundar mere bhai.

meri taraf se badhaai
bhor mein aapne colours bhar diye hai . maza aa gaya aapko padhkar

aur chahiye

vijay

vijay kumar sappatti said...

maine bhi ek bhor likhi hai , jo kabhi publish karunga

wo aap jitni khoobsurat nahi hai .

bus yun hi


vijay

अनुपम अग्रवाल said...

भोर के साथ ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है .
बस आप उजाले बांटे हम लोगों के लिए .

daanish said...

Anupamji, aapka dhanyaavaad. Aapke amulya vicharo se to sb ko prerna aur sukhad anubhav milte haiN.
---MUFLIS---

Dr.Bhawna Kunwar said...

Bahut sundar rachna bahut-bahut badhai..

manu said...

सँवारे चढ़ते सूरज की किरण जिसका रुख-ऐ-रोशन,
हाँ होता है वो शहंशाह, वो कोई "मुफलिस" नहीं होता..!

Anonymous said...

खुबसुरत रचना, बधाई ।