छंद-मुक्त काव्य में निपुणता की कसौटी से मैं भी
उतना ही अनभिज्ञ हूँ जितना कि इस विधा में
महारत रखने वाले कुछ अन्य साथी हैं,,,, कई बार
शैली की कसावट की जगह कथन/कथानक को
अधिमान देना ही पर्याप्त समझा जाता है,,,और ये
तथ्य ही इस विधा की सफलता को रेखांकित करता है
उत्तर-आधुनिक काव्य में प्रयुक्त प्रतीक, विम्ब,
उपमाएं इत्यादि, निसंदेह ही इसकी विशेषता जाने जाते हैं
अपने अल्प-ज्ञान को स्वीकारते हुए ही आपके समक्ष एक
कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ... अब क्या करें .....
" जिन्हें जलने की हसरत हो,, वो परवाने कहाँ जाएं..."
और आज ......
इक दौर था वो भी...
हर घर के किसी एक ही कमरे में पड़ा
एक ही टी.वी.
सबका सांझा हुआ करता था
शाम ढलते ही उमड़ पड़ता
देखने वालों का जमावड़ा
सब के सब एक ही जगह ...
सब... इक साथ...पास-पास
सबकी सांझी ख़ुशी, सांझी सोच, सांझी मर्ज़ी
तब ......
घर में सब जन एक थे... सब इक साथ ...
इक दूजे के पास-पास, इक दूजे के साथ-साथ
इक दौर है ये भी ...
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है
सब.... अलग-अलग अपना
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी.
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना
और आज .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
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38 comments:
और अब .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
बिल्कुल सही कहा आपने अगर ऐसा न होता तो वृद्धाश्रम बनने की नौबत शायद न आती ,बहुत से घर इसी समस्या से ,अकेलेपन से जूझ रहे हैं ,
लेकिन
आज भी हमारा देश संयुक्त परिवारों से ख़ाली नहीं जहां हम एक दूसरे की भावनाओं का आदर करना सीखते हैं और करते भी हैं
ज़रूरत है बस इसे बचा कर रखने की ,हम कोशिश तो कर ही सकते हैं ना.
यूँ तो अपने अपने सफ़र में हर कोई अकेला है.
इक साया सा राहते हर मोड़ पे मिला..
क्या भूमिका बांधी है लाज़वाब !!!!!.कविता तो क्या कहने, बहुत खूब एक एक शब्द जैसे आँखों के आगे घूम घूम कर जाने क्या क्या याद दिला गया.
अकेले तो तन्हा थे हम
भीड़ में भी अकेले हैं ....
behatareen...
पहली बात इतनी संवेदना से हरी है कि कुछ और आगे जाती..
बहुत प्रभावी.
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !
जान निकाल दी मुफलिस जी आपने...
क्या कह दिया हुज़ूर....!!!
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !
आज वाकई यही वक़्त आ गया है...याद हो आया..पहले टी.वी..अपने पूरे घर में नहीं..
पूरे मोहले में एकाध होता था....
कभी वी.सी.आर. लगता था तो ऐसे हो जाता था जी कोई बड़ा त्यौहार है...रात भर ३-४ फिल्में कैसे आँख फाड़ फाड़ कर देखा करते थे....कितना किल्स्ते भी थे...
के बस अब नहीं देखी जाती......
पर फिर मुंह पर पानी मार कर ब्रह्म मुहूर्त में फिर से कमर कस ली जाती थी...
आज टी.वी. हर कमरे में क्या....हर पॉकेट में रखा हुआ है...
बस वो बात ही नहीं रही..अब....
बहुत अच्छी कविता दो अहद को पाटती हुई ताजातरीन यादों के साथ ... यादें ताज़ा हो आईं जब बचपन में चित्रहार देखने के लिए या रामायण देखने के लिए सभी एक ही रूम पे आ बैठते थे...
क्या वो भी दिन थे... और एक आज का दिन ....
अर्श
जब पैसा नहीं था तो दो स्लाईस ब्रेड के लिए आपस में लड़ते रहते थे :)
आज जब पैसा है तो ब्रेड नहीं खरीदते :(
और अलग कम्प्यूटर भी...सच अब हम सब कितने अकेले हो गये हैं और इस सोच में खुश रहते हैं कि हम रोज़ नेट पर स्टेटस अपडेट कर लेते हैं...एक-दूसरे के हालचाल जान लेते हैं...पर वो तो आभासी संसार है...यूँ तो हम अकेले ही हैं न.
शुक्रिया
अपने सामान के साथ हर कोई अकेला है ........वाह ,बहुत ख़ूब !
जी हाँ , एक ही टी वी , एक ही चैनल । घर के लोग ही नहीं , पडोसी भी साथ बैठ देखते थे । आधुनिक विकास की ऐसी आंधी आई की उड़ा ले गयी रिश्तों की पतंग को दूर कहीं आसमान में ।
और अब .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
सच कहा और खूब कहा ।
मुफलिस जी , नमस्कार।
swa ke mad me akelepan rah gaya....visfot kee sambhawna , jane kab !
Jo bhi mila usi ne mujhko ek ghunt mein peena chaha
Koee peeta mujhko lamha lamha, khawahish hi reh gayee
अब.... सब के पास... सब अपना है
सब.... अलग-अलग अपना
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी.
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
बहुत दूर ले गईं आपकी पंक्तियाँ .....
लौटने के बाद सोचा कुछ न कहूँ तो बेहतर है ......!!
आपने एक नया जुमला दिया हमें, "अलग-अलग अपना". बड़ी सादगी से कही गयी बिखराव की पीड़ा चुभन के साथ प्रेषित हुई है. संतोष यही है कि इंसान मुड़मुड़कर सम्वेदना की जड़ों में अपनी भावना की अर्द्रता छोड़ जाता है. कभी-कभी लगता है हम आगे बढने को ऐसे 'मजबूर' हैं कि बस किसी भी कीमत पर बढते ही जाते हैं. आपकी कविता पढकर थोड़ा नॉस्टाल्जिक सा हो गया.
प्रगति-विकास से जुड़ने का यह नुकसान तो हम भोग ही रहे हैं...वो दौर ख़त्म हो गया कि जब परिवार एक संस्था हुआ करती थी अब तो सिंगिल का ज़माना है........ आपकी पोस्ट पर यह शेर बरबस याद आ गया.....
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी
आपकी आवाज़ में बहरहाल हमारा स्वर भी शामिल है
अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ..
ये प्रगती और क्या क्या छीनेगी पता नही .. बचपन, जवानी, हँसी के ठिठोले, लट्तू, कंचे, बुज़ुर्गो की सेवा .... बहुत कुछ चीन गया है इस नये ज़माने के चलन में ... आपने दिल से दिल की बात लिख दी ..
वाह आज के सच को कितनी सरलता से उकेरा है । बहुत सुंदर मुफलिस जी । आपने जो टिप्पणी मेरे ब्लॉग पर दी है मैं जमीन से दो कदम ऊँची उठ गई । उत्साह बढाने में आपका कोई सानी नही । कृपा बनाये रखें ।
वक़्त बदलता है हालात बदलते हैं .
बदले हालातों का सही चित्रण किया है.
sab bazar ki maya hai.
bahut achhi rachna hai.
और अब ..अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...
मुफ़लिस जी, ये आपका अंदाज़े-बयां दिल को छू गया.
muflis ji
deri se aane ke liye maafi .....
bahut der se yaha ruka hua hoon ... har koi apne samaan ke saath akela hai ... itni philosphical thought ..zindagi ka pahla aur aakhri aur kadwa satya ... jeevan ki samast paribhaasha ,jaise in pankhtiyo me simat aayi ho ...main nishabd hoo huzoor. bas aapko salaam bazaata hoon aur aapki lekhni ko naman karta hon ... guruji aapne aaj man ko maun kar diya ..
aabhar aapka
vijay
आदाब जनाब,
जितना छूटा था, इत्मिनान से पढ लिया, और हर रचना पर इस मन के अन्दर वाह सी आवाज़ आती रही।
कभी कभी लगता है प्रगति हुई है, बहुत हुई है मगर उसकी एवज़ में हमने बहुत कुछ खो दिया है, खोते जा रहे हैं।
आपकी रचना ने जिस यथार्थ को समेटा है वो सोचने पर मज़बूर करता है कि हम क्या थे, कैसे हो गये हैं?
Wo guzra daur aaj bahut yaad aata hai..
इस व्यस्तता का तौबा कि आपकी काल मिस हो गयी....देर रात गये फ्री हुआ तो अभी आप शायद गहरी नींद में होंगे।
पहले तो इस "मचलते हैं मेरे अश`आर जब भी उनके होटों पर/फ़ज़ाएँ रक्स करती हैं, तरन्नुम फ़ूट जाते हैं" पर करोड़ों दाद कबूल फ़रमायें।
आजकल ब्लौग जगत को समय नहीं दे पा रहा बिल्कुल भी। खबरों में देख ही रहे होंगे हालात....
कविता ओए कुछ कहने अलग से आता हूं।
That is a deep thought And eyes within tears while reading. I stand And clap for you.
वाह बहुत सुन्दर रचना लिखा है अपने! बहुत बढ़िया लगा! बधाई!
और अब .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
....आज के समय की बिलगाव स्थिति का भावपूर्ण चित्रण किया है आपने ...
....बिडम्बना तो है यह फिर भी हम सबसे मिल जुल रहें यही उद्देश्य होना चाहिए... एक न एक दिन अच्छाई सामने जरुर आती है.... फिर अलग रहकर भी कोई अपना अलग नहीं दिखता .. ...
यार बेहद शर्मिंदा हूँ देर नहीं, बहुत देर से आने के लिए. लेकिन मजबूरी को लोग जो नाम देते हैं, वो मुझे पसंद नहीं. मुआफी की दरख्वास्त है. उम्मीद है आप दरगुजर करेंगे.
फिर शर्मिंदा हूँ की इतना जबर्दस्त कंटेंट मेरे घटिया दिमाग में क्यों नहीं आया. कमाल कर दिया भाई. कितनी यादें जहन में तैर गईं. यार, तब टी.वी. घर का नहीं, मुहल्ले का साझा हुआ करता था.
पूरी रचना पढ़ते हुए खुद को कोसता रहा हूँ. लेकिन एक इत्मीनान भी था कि मामला घर से बाहर नहीं गया. यह आज'' का प्रयोग करके जो उन दिनों से तुलना की है, उसने तो सोचने पर मजबूर कर दिया.
bada gahra kataksh hai,,,,,,
aaj yahi halat hai
sabke paas sab hai aur sab akele hain
तन्हाई हासिल - ए- जिंदगानी है ... हमेशा लिपटी रहती है हम सब के वजूद से .. अब इस से मरासिम कैसे टूटे भला
इक दौर था वो भी...
सबका सांझा हुआ करता था ....
सबकी सांझी ख़ुशी, सांझी सोच, सांझी मर्ज़ी ...
अब.... सब के पास... सब अपना है
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
अब .......
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
अत्यंत सुन्दर कविता
शब्द और अनुभूति की इस दौलत के लिए
बधाई
अपने अपने सामान के साथ
हर कोई अकेला है ...... !!
- आज के समय की यही नियति है. बहुत सुन्दर.
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Sachaai ko bayaan kia...
Achha kia... bahut kum log ghehraai se likh paate hain aise vishayo pe...
U did a good job :)
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
सुन्दर अभिव्यक्ति,भावपूर्ण. अपना हो कर भी पराया है..
आभार
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