वक़्त हमारे हाथों में नहीं खेलता, हमें ही वक़्त के
हाथों में खेलना पड़ता है.... कभी कभार इंसान को
कुछ तल्ख़ और उदास लम्हों से दो-चार
होना पड़ता है... ऐसे धैर्य की
अंगुली थामे रहना ही वाजिब माना जाता है...
इस जज़्बे के इलावा अगर कुछ काम आ पाता है
तो वो हैं कुछ खास दोस्तों की नेक दुआएं...
लीजिये... एक सादा-सी , छोटी-सी ,
बस यूँ-ही-सी ग़ज़ल हाज़िर है ........
ग़ज़ल
जीवन खेल अजब देखा है
कब, क्या हो, ये कब देखा है
तुझ में अपना रब देखा है
जीने का मतलब देखा है
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
खुशियों में भी ग़म की आहट
वक़्त बड़ा बेढब देखा है
दिल अपना है , दर्द पराया
ये दस्तूर गज़ब देखा है
रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
क्या वो भी यूँ सोचे मुझको
नुक्ता , ग़ौरतलब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'दानिश' ख़ुद को अब देखा है
___________________________
नुक्ता=मर्म की बात , रहस्य,
गौरतलब= ध्यान देने योग्य
____________________________
44 comments:
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
मुफलिस साहब आपकी कलम चूमने को जी करता है...क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने...वाह वा...एक एक शेर दिल में घर कर गया है...छोटी बहर में क्या गज़ब ढाया है आपने...उफ्फ्फ...ढेरों दाद कबूल करें.
ग़ज़लों से जां लेने वाला
यारब हमने अब देखा है
नीरज
बहुत सुन्दर ग़ज़ल है ! हरेक शेर अच्छा लगा !
छोटी बह्र की इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल में आपने वाक़ई ग़ज़ब ढाया है. आपकी कलम का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है.आपकी इस ग़ज़ल के तमाम अशआर की ज़बान भी
सहज सादा और बहुत ही दिलकश है, मोहक है.
सारी ग़ज़ल को ही कमेंट-बाक्स में उतार देना चाहता हूँ,लेकिन ये दो अशआर और मक़्ता तो बेहद कमाल के लगे:
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
बन पाएँ इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है
रिश्ते-मक़सद , मक़सद-रिश्ते
खेल-तमाशा सब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
बहुत ख़ूब,वाक़ई अगर हम इंसान ही बन पाएं तो
ये दुनिया कितनी ख़ूबसूरत हो जाए
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है
बेहद उम्दा और बाहिम्मत मक़्ता ,
बहुत ख़ूब!
छोटी बह्र की इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल में आपने वाक़ई ग़ज़ब ढाया है. आपकी कलम का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है.आपकी इस ग़ज़ल के तमाम अशआर की ज़बान भी
सहज सादा और बहुत ही दिलकश है, मोहक है.
सारी ग़ज़ल को ही कमेंट-बाक्स में उतार देना चाहता हूँ,लेकिन ये दो अशआर और मक़्ता तो बेहद कमाल के लगे:
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
बन पाएँ इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है
बहुत-बहुत बधाई.
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है..
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है dono apne se lage..
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
मुफलिस जी , हमारे दिल की बात कह दी।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखी है ।
हम तो आपको आज ही याद कर रहे थे ।
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
वाह !!!!!!!!! क्या बात है..... अच्छी है ग़ज़ल .शानदार जानदार और क्या कहूँ..........
भूमिका तो कमाल की रही और जब ग़ज़ल पर नज़र पड़ी तो फिर ठहर गयी ... मतले की सादगी से उबर नहीं पा रहा हूँ और फिर पूरी ग़ज़ल की सादगी के बारे में क्या कही जाए ... जब खुद बड़े भाई द्विज जी से इतनी मुहब्बत दी है आपको के क्या कहने , एक तो आप खुद उस्ताद ऊपर से द्विज जी की दुआएं ...! मैं भी सारे ही शे'र कोट कर देना चाहता हूँ ...ब्लॉग पर कुछ ही ऐसे ब्लॉग हैं जहाँ निहायत ही खुबसूरत ग़ज़ल पढने को मिलती हैं और तर्ज़-ए-बयान उनमे से एक है... दिली दाद कुबूलें ...ढेरो दुआएं आपके लिए ....
आपका
अर्श
वाह जी सुंदर.
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
Though few urdu words are unable to understand but no doubt you are a deep thinker And a good writer. Keep writing.
आपकी शख्सियत के बारे में कुछ कह पाने का तजुर्बा मुझमे नहीं है
बस ये ही है की आपको पढ़ कर,, आपकी बातें सुन कर बहुत कुछ सीखने को मिला है
शायरी में भी और जिंदगी में भी
छोटी भर से तो मुझे खास लगाव सा है
ये शेर मुझे खास पसंद आये
बन पाएँ इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है
- स्नेहातुर वीनस
आपकी शख्सियत के बारे में कुछ कह पाने का तजुर्बा मुझमे नहीं है
को
आपकी शख्सियत के बारे में कुछ कह सकने के लायक तजुर्बा मुझमे नहीं है
पढ़े
असुविधा के लिए खेद है
बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! हर एक शेर लाजवाब है! बधाई!
Hello :)
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है
Kya likhaa hai... bahut khoob!!
Nice...
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
आपकी सीधी-सादी भाषा की ही तो मैं प्रशंसक हूँ. सरल शब्दों में गहरी बात कहना सबके बस की बात नहीं. जो ज़िन्दगी में बहुत गहराइयाँ में उतरकर वहाँ से निकल आता है, वही उन गहराइयों को आसानी से कह जाता है...
बहुत प्यारी ग़ज़ल है...आपकी खुद अपनी ही शैली में सीधी-सी...पर सीधी चीज़ें ही तो भीतर तक बेध देती हैं. कितनी सीधी सी बात है---
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
रिश्ते-मक़सद , मक़सद-रिश्ते
खेल-तमाशा सब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
har baar ki tarah... khoob..bahut khoob...
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है
How modest..aapke antarman ko darshati behad khubsurat ghazal
me a big fan of your writeups Muflis ji
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
Aapki rachnaon pe comment karun is qabil nahi...khamosh kar diya aapne..
जीवन खेल अजब देखा है
कब, क्या हो, ये कब देखा है
वाह....
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
सब ऐसा ही कब सोचेंगे?
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है..
इस मक़ते ने मेरा एक शेर याद दिला दिया-
किसी पर नुक़्ताचीनी हम कभी करते नहीं वाइज़
हमेशा हमने अपने आप में तकसीर देखी है....
''...nice....''
:)
रात भी ऐसा ही हुआ था...ग़ज़ल पढ़कर..और फिर कमेंट्स पढ़ कर कुछ कहने को नहीं था.....
कुछ कमेंट्स थे जो कोपी-पेस्ट नहीं किये हुए थे...
हाँ,
रात को खुद-खुद को खुद-ब-खुद करने कि कोशिश करके देखी थी..मगर कामयाबी नहीं मिली....
दूसरे और छठे शे'र को मिलाकर देख रहे हैं..और सोच रहे हैं....
क्या रब से भी रिश्ता मतलब का ही होता है...??
क्या वो भी यूँ सोचे मुझको
नुक्ता , ग़ौरतलब देखा है
रात भी इस शे'र की गहराई में डूबते उतराते रहे...
और सुबह फिर इसी कमबख्त ने आ घेरा...
आपकी यह गज़ल बहुत पसंद आयी.
सूनी आँखें , बोझिल पलकें
ये क़िस्सा हर शब देखा है
रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
- वाह! मक्ता भी बढिया है.
इतना सहज लेखन ... जैसे आस पास के बिखरे शब्दों को माटी बना दिया है आपने ... शब्द तो सभी के पास होते हैं पर समझ आप जैसे पारखी के पास ही होती है ..... लाजवाब ग़ज़ल ... हर शेर मान को मोहने लगता है ...
बाप रे बाप! इतनी छोटी बहर और इतने वाहियात काफिए, फिर भी कमाल! और मुझ से कहा गया गजल अच्छी नहीं है. भाई, अगर इसे खराब कहते हो तो खराब को क्या कहते हो? फिर अशआर में जो कन्टेन्ट पिरोए हैं उनकी अगर तारीफ न की जाए तो किसकी की जाए?
आप ब्लॉग जगत के माहिर शुअरा में शुमार किए जाते हैं. इतनी खाकसारी अच्छी नहीं.
दिल अपना है , दर्द पराया
ये दस्तूर गज़ब देखा है
-वाह ! क्या बात कही है! वाह!
-रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
-बहुत ही सटीक बात कह दी !यही तो आईना है आज के अस्थायी रिश्तों का.
--बहुत उम्दा ग़ज़ल!
Yah gazal baar,baar padhneka man karta hai!
आज आया इधर मैं पहली बार,
आपके कमेण्ट की उँगली पकड़े-पकड़े। अपनी रसाई वैसे भी मुफ़्लिस, मजबूर, तन्हा, कमज़ोर, ख़राबहाल, यानी कि शाय्ररों से और शायरी से जज़्बाती और इन्तेहाई है।
आपकी ग़ज़ल अच्छी लगी, दोबारा आऊँगा तब और पढ़ूँगा, तब तक के लिए शुक्रिया और ख़ुदा-हाफ़िज़,
bahut khub likha hai ...
पिरोती हूँ जब
यादों के मोती
मुस्कुराती हूँ अबस,
चमक उठती हैं
आँखों के किनारे
पानी की कुछ बूँदें,
क्यों ज़रूरी नहीं लगता
अब तुम्हें
मेरे साथ बात भी करना,
क्यों अब तुम नहीं बैठते
मेरे साथ
एक कमरे में,
मैं आज भी सुना सकती हूँ तुम्हे
वोही राजा रानी के क़िस्से
बदले में तुम मुझसे
एक बार लिपट जाओ
फिर से माँ कहके
हमने आकर अब देखा है
बह्रो-वज़्न ग़ज़ब देखा है
ग़ज़ल कुआँरे हाथों मेंहदी
रचने सा करतब देखा है
ढाई आखर पढ़ते हमने
क़ैस सर-ए-मकतब देखा है
शौक़ बहुत लोगों के देखे
हुनर मगर ग़ायब देखा है
टूटी खाट, पुरानी चप्पल
शायर का मन्सब देखा है
मुफ़्लिस के अंदाज़े बयाँ में
अपना वज्हे-तरब देखा है
जब-तब हमने सब देखा है
मत पूछो क्या अब देखा है
आपकी ग़ज़लगोई पसन्द आई, सो ये टिप्पणी दे रहा हूँ। इसे ले जाकर अपनी पोस्ट भी सोचता हूँ बना दूँ के लोग देख सकें…
बहुत अच्छे, जारी रहिए…
बहुत सुन्दर गज़ल है लेकिन पता नहीं क्यों मैं इस शेर पर आ के अटक जाती हूं -
रिश्ते , "ख़ुद-ख़ुद" जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
यहां पढते समय ये खुद-खुद खटक रहा है. मैने केवल अपनी बात कही है, हो सकता है कि मै गलत होऊं.
बेहतरीन ग़ज़ल। सभी शेर एक से बढ़ कर एक। और आख़िरी शेर तो कबीर को छू गया है। बधाई।
मुफलिस जी, इस ग़ज़ल ने यूँ ही ऐसे ही कमाल कर दिया है,
बहुत खूबसूरत शेर हैं, खासतौर से ये, जो मुझे बेहद पसंद आये
"रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है "
"बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है"
"सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है"
गुरूवर विलंब के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ।
मुफ़लिस की चमत्कारी लेखनी से उपजी एक और उम्दा ग़ज़ल...वाह क्या कहने! मतला और हुस्ने-मतला में उलझ गये हम कि किसका हुस्न ज्यादा बेहतर है।
रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है" इस शेर में तो संसार का सारा ताना-बाना समेट के रख दिया है आपने।
...और मक्ते में मुफ़लिस को कबीर बनते देख रहा हूँ।
..और ये भी देख रहा हूं कि महिला प्रशंसकों तादाद बढ़ती जा रही है।
खुशियों में भी ग़म की आहट
वक़्त बड़ा बेढब देखा है
रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'दानिश' ख़ुद को अब देखा है
यूँ तो पूरी गज़ल ही खूबसूरत है पर ये कुछ शेर दिल को छू गए...
बहुत ही बढ़िया गजल है।
सादर
बहुत खूबसूरत गज़ल
बहुत खूब कहा है आपने ।
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'मुफ़लिस' ख़ुद को अब देखा है
पूरी ग़ज़ल गज़ब है पर ये दो शेर दिल को छू गए ...शुक्रिया :)
दीदी, ग़ज़ल का हर शेर लाजवाब है ...कोई शक नहीं .और इन तीन शेरों में तो जीवन का निचोड़ पेश कर दिया है आपने ...बधाई हो
रिश्ते , ख़ुद-ख़ुद जुड जाते हैं
जब कोई मतलब देखा है
बन पाएं इंसान , ग़नीमत
जाने किसने रब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'दानिश' ख़ुद को अब देखा है
सारी कमियाँ मुझ में ही थीं
'दानिश' ख़ुद को अब देखा है
बेहतरीन गज़ल
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