Wednesday, May 5, 2010

भीड़ का ना तो कोई नाम होता है, और न ही
भीड़ की कोई शनाख्त होती है...
धीरे-धीरे लगता है हम भीड़ के आदमी बनते जा रहे हैं

कहीं कुछ भी होता रहे, लगता है किसी को कुछ फ़र्क़ ही

नहीं पड़ता... सुबह से शाम
शाम से सुबह रही hai
बस इतना काफी है
ख़ैर.... एक नज़्म/कविता हाज़िर करता हूँ





वो... वो बहुत से लोग....




हमें मालूम है
हम लोग.... हम कुछ-एक लोग

अपनी आवाजों, अपने बोलों, अपने शब्दों के साथ

नाकाम ही रहे

नाकाम.... उस व्यवस्था को बदल पाने में
उस तानाशाह , भ्रष्ट व्यवस्था को बदल पाने में

ऐसी क्रूर, कुटिल, कुख्यात, कलंकित व्यवस्था
जो आम आदमी को दबे ही रहना देना चाहती है

उसी के खोल में ही ...

पर हमें लगा
कि लड़ सकते थे हम लोग

भरोसा था हमें उस भीड़ पर

भीड़ में सांस लेते उन बहुत-से लोगों पर

कि वो लोग....
वो बहुत-से लोग ...
अगर चाहें

तो हम मिल कर चीख सकते हैं

मिल कर आह्वान कर सकते हैं

मिल कर सच्चाई का परचम लहरा सकते हैं


लेकिन हम.... हम फिर नाकाम रहे

क्योंकि वो लोग.... वो बहुत-से लोग

व्यवस्था के साथ लड़ना ही नहीं चाहते थे

बस तमाशा देखते रहना चाहते थे

वो लोग जीना नहीं चाहते थे

बस.. सांस ही लेते रहना चाहते थे ....

और... वही लोग ...
वही बहुत-से लोग ही कामयाब हुए
क्योंकि

वो लोग ...
उस व्यवस्था का हिस्सा बन गए

सुरक्षित हो गए...






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38 comments:

रश्मि प्रभा... said...

लेकिन हम.... हम फिर नाकाम रहे
क्योंकि वो लोग.... वो बहुत-से लोग
उस व्यवस्था के साथ लड़ना ही नहीं चाहते थे
बस तमाशा देखते रहना चाहते थे
वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस सांस ही लेते रहना चाहते थे ....
bahut sahi, bahut badhiyaa

varsha said...

और... वही लोग ...
वही बहुत-से लोग ही
कामयाब रहे
क्योंकि
वो लोग ...
उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षित हो गए
yaa ki surakshit hone ke bhram mein ji gaye? darasal ye sheeshviheen log hain.

वीनस केसरी said...

वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस सांस ही लेते रहना चाहते थे ....


साथ कोई नहीं देना चाहता टोक सब देते हैं
:|

मुझे लगता है मै भी अपवाद नहीं हूँ

manu said...

वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस सांस ही लेते रहना चाहते थे ....


shaayad unke liye saans le paanaa hi jeenaa ho.....!

muflis ji....bahas karne kaa man hai bhi aur nahi bhi hai.....

aapse nahin...
kisi aur se...

तिलक राज कपूर said...

आपका यह तर्ज़-ए-बयॉं उन लोगों में खलबली न मचा दे।
खूबसूरत कटाक्ष है।
यहॉं से शोर उठता है, वहॉं से शोर उठता है

जहॉं आवाज़ उठती है, दबाने चोर उठता है।

इस्मत ज़ैदी said...

लेकिन हम.... हम फिर नाकाम रहे
क्योंकि वो लोग.... वो बहुत-से लोग
उस व्यवस्था के साथ लड़ना ही नहीं चाहते थे
बस तमाशा देखते रहना चाहते थे
वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस सांस ही लेते रहना चाहते थे ...

पूरी व्यवस्था तो बड़ी चीज़ है हम तो मरते हुए इन्सान को रास्ते में छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं,जब अंतरात्मा ही मर चुकी हो तो शरीर में केवल सांस
का ही आवा गमन बाक़ी रह जाता है,
कविता की बारीकियों को पूरी करती हुई एक ऐसी रचना जो हमारी अंतरात्मा को झिंझोड़ने में सफल हुई है

एक मुकम्मल नज़्म जो हक़ ओ बातिल में फ़र्क़ करने की तरफ़ हमारे ज़हनों को माएल करती है,

बहुत ख़ूब !
मुबारक बाद क़ुबूल फ़र्माएं

वन्दना अवस्थी दुबे said...

और... वही लोग ...
वही बहुत-से लोग ही
कामयाब रहे
क्योंकि
वो लोग ...
उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षित हो गए
बहुत खूब. बस इन्हीं तेवरों की तो ज़रूरत है अब.

नीरज गोस्वामी said...
This comment has been removed by the author.
नीरज गोस्वामी said...

क्या कहूँ मुफलिस साहब....निशब्द हो गया हूँ...एक तल्ख़ सच्चाई को आपने लफ़्ज़ों का जामा पहना दिया है...आपके ये लफ्ज़ बार बार ज़ेहन में हथोड़े की तरह बज रहे हैं...:
वो लोग ...
उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षित हो गए

हम सभी इस कुव्यवस्था के हिस्से ही तो हैं...अपने अपने खोल में महफूज़...बेहतरीन नज़्म...खड़े हो कर तालियाँ बजने लायक....वाह...
नीरज

Arun said...

Sach hai !! Sehmat hoon !!!


Bheed bahut thi lekin log kum
Bus yun hi ho gaye nakaam hum

Shor chaaro aur tha ki, ladayee!
Ladne waale kam they, zyaada tamashayee!!
Shahadat jaam thi aur peene wale kum
Bus yun hi ho gaye nakaam hum
Bheed bahut thi lekin log kum


Ek jazba chahiye bheed ko, inqlaab dene waala
Warna kat jayenge do chaar baaju akele uthe huye


Regards

Arun said...

भीड़ से कैसी उम्मीद इन्कलाब की
लोट जायेंगे यह तमाशाई, तमाशे के बाद

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

हम फिर नाकाम रहे
क्योंकि वो लोग.... वो बहुत-से लोग
उस व्यवस्था के साथ लड़ना ही नहीं चाहते थे
बस तमाशा देखते रहना चाहते थे
वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस सांस ही लेते रहना चाहते थे ....

और... वही लोग ...
वही बहुत-से लोग ही
कामयाब रहे
क्योंकि
वो लोग ...
उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षित हो गए..........
मुफ़लिस जी....कितना बड़ा सच कह गये आप!

सर्वत एम० said...

नंगी सच्चाई. आज तक का इतिहास. महेश 'अश्क' का एक शेर याद आ गया---
जिन को उखड़ के गिरना था, वो और जम गए
ये क्या किया हवाओं ने रुख अपना मोड़ के
सच यही है कि हम मुर्दों की बस्ती में जी रहे हैं. गुलामी के दौर में भी, जब क्रांतिकारी अपनी ज़िन्दगी कुर्बान करते फिर रहे थे, उस वक्त भी खान बहादुर, राय बहादुर लोग घुटनों के बल चलने में फख्र महसूस कर रहे थे.
मुफलिस जी, इस नज्म ने मुझे खामोश कर दिया. मैं इस पर चाहते हुए भी कोई कमेन्ट नहीं दे पा रहा हूँ. यह खुद मेरी अंतरात्मा की आवाज़ है----------------और अपने ही लिखे-पढ़े की अपने ही मुंह से तारीफ क्या?

डॉ टी एस दराल said...

उफ़ कहाँ से लायें वो लोग !
कहाँ मिलते हैं वो लोग ?
उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
वो लोग ।

आज बहुत ज़बर्ज़स्त सच्चाई लिखी है मुफलिस जी । दिल में एक टीस सी उठ गई है । बेहतरीन रचना ।

दिगम्बर नासवा said...

ये सही है इस व्यवस्था को बदलना आसान नही ... पर आशा तो फिर भी जीवित रहती है ... सत्य को शब्दों में उतरा है आपने ...

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

आपने बिल्कुल सही अभिव्यक्ति दी है
धीरे-धीरे कुव्यवस्था का अंग बनते जा रहे केवल सांस लेते
लोगों को लेकर. क्योँकि:

"साँस का चलना ही जीवन तो नहीं
सोच
बिन हर आदमी बेजान है"

सुन्दर और बेबाक अभिव्यक्ति के लिए बधाई.

Pawan Kumar said...

लेकिन हम.... हम फिर नाकाम रहे
क्योंकि वो लोग.... वो बहुत-से लोग
उस व्यवस्था के साथ लड़ना ही नहीं चाहते थे
बस तमाशा देखते रहना चाहते थे
वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस सांस ही लेते रहना चाहते थे ....

दुरुस्त फरमाया आपने.....!

डिम्पल मल्होत्रा said...

वो लोग जीना नहीं चाहते थे
बस.. सांस ही लेते रहना चाहते थे ....ये कविता की पंच लाइन है सवाल छोडती हुई..

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

आपने तो इस रचना के जरिए समाज की बेहद तल्ख हकीकत को ब्यां कर डाला...आज न तो किसी के पास आत्मा है,न स्वाभिमान और न ही इच्छाशक्ति..जिनके जरिए किसी बदलाव की उम्मीद की जा सके.....

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वो लोग ...
उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षित हो गए...

बहुत संवेदनशील रचना.....

kumar zahid said...

भीड़ का ना तो कोई नाम होता है, और न ही
भीड़ की कोई शनाख्त होती है...
धीरे-धीरे लगता है हम भीड़ के आदमी बनते जा रहे हैं
कहीं कुछ भी होता रहे, लगता है किसी को कुछ फ़र्क़ ही
नहीं पड़ता...हर कोई ये सोचता है कि सुबह से शाम
शाम से सुबह हो पा रही हैं या नहीं...
आज भी कुछ हैं ऐसे लोग
जो सच्चाई और ईमान का परचम फेह्राए रखना चाहते हैं


कवि की सोच चाहे जिस रूप में अभिव्यक्त हो वह चिन्तनीय होती है

पर हमें लगा
कि लड़ सकते थे हम लोग
भरोसा था हमें उस भीड़ पर
भीड़ में सांस लेते उन बहुत-से लोगों पर
कि वो लोग....
वो बहुत-से लोग ...
अगर चाहें
तो हम मिल कर चीख सकते हैं
मिल कर आह्वान कर सकते हैं
मिल कर सच्चाई का परचम लहरा सकते हैं

लेकिन हम.... हम फिर नाकाम रहे


फिर हम सब जीवनभर नाकामियों से ही लड़ते रहते हैं
बहुत सशक्त कविता बधाई

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

सच कहा है बाऊ जी!
आशीष, फिल्लौर

Alpana Verma said...

'हर कोई ये सोचता है कि सुबह से शाम
शाम से सुबह हो पा रही हैं या नहीं...'
बहुत सही लिखा है!
----
इस रचना में 'जिन के' बारे में आप ने लिखा है..कि .'उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षित हो गए '
यही वे लोग हैं जिनके कारण आज गर्त में जाते दिख रही हैं बची खुची उम्मीदें ...
कुछ समय पहले मेरी एक रचना पर प्रकाश गोविंद जी की एक टिप्पणी आई थी..-उसी से यह पंक्तियाँ साभार लिखना चाहती हूँ...कि इन 'तथाकथित अच्छे लोगों 'के कारण ही दुनिया आज इतनी बुरी हो गयी है!
.................
फिर भी जो सच्चाई और ईमान का परचम फेहराए रखना चाहते हैं उन्हें इश्वर दोगुनी हिम्मत दे .


आप ने लिखा भी है ....>
'हम मिल कर चीख सकते हैं
मिल कर आह्वान कर सकते हैं
मिल कर सच्चाई का परचम लहरा सकते हैं'

..खुद से शुरुआत करते हुए आशाएं बनाये रखना ही होगा.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

जीवन के सच को बयाँ करने का आपका तरीका लाजवाब कर देता है। बधाई स्वीकारें।
--------
बूझ सको तो बूझो- कौन है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?

"अर्श" said...

देर से आया हूँ , देरी की वजह आप जानते ही हैं ... अभिब्यक्ति इतनी साफ़ साफ़ है के क्या कहने ... हमेशा ही आप कमाल करते हैं ... दिल से ढेरो बधाई...


आपका
अर्श

Ankit said...

मुफलिस जी, बहुत उम्दा नज़्म है
सच कहा है............वो..वो बहुत से लोग

"पर हमें लगा
कि लड़ सकते थे हम लोग
भरोसा था हमें उस भीड़ पर
भीड़ में सांस लेते उन बहुत-से लोगों पर
कि वो लोग....
वो बहुत-से लोग ...
अगर चाहें
तो हम मिल कर चीख सकते हैं
मिल कर आह्वान कर सकते हैं
मिल कर सच्चाई का परचम लहरा सकते हैं"

.मगर मुझे विश्वास है हम कामयाब होंगे सच्चाई का परचम लहराने, सिर्फ एक को हाँ एक को आगे बढ़ना होगा और भीड़ तो हमेशा पीछे ही रहती है

Arun said...

बात बात पे दिल का थामना, ठंडी सांसें
इश्क वोह रोग है जो जान लेता है प्यार से

shikha varshney said...

बहुत ही सच्ची बात कही है आपने ..इसी बात पर एक अकविता लिखी थी मैने " ओस और प्राणी "..
हम शुरू में कोशिश करते हैं लड़ते हैं इस समाज से इसकी व्यवस्था बदलने के लिए ..फिर बन जाते हैं इनमें से ही एक ..आखिर जीना जो है इसी परिवेश में ..
सार्थक रचना.

Pawan Kumar said...

अभूत सटीक कविता.....कविता क्या तंज़ है आज के हालत और समाज पर....तेवर अच्छे लगे...! मेरे ब्लॉग पर आने और हौसला बढ़ने का बहुत बहुत शुक्रिया.

kavi surendra dube said...

वही बहुत-से लोग ही कामयाब हुए
क्योंकि
वो लोग ...
उस कुव्यवस्था का हिस्सा बन गए
सुरक्षि.
बहुत अच्छा लिखा है आपने त हो गए...

VARUN GAGNEJA said...

you have just taken up the issue of corruption in a very right and absolute right manner. actually we are not only corrupt in the monetary terms but at every aspect like culture , morality etc. every nation after getting the independence has faced this kind of situations but we are facing the extremes. any way tarz ae byaan achha hai

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

" हुज़ूर , आपका भी एहतिराम करता चलूं,
इधर से गुज़रा था…सोचा, सलाम करता चलूं"

नेट पर पहली बार फरवरी में दस्तक देने के बाद से साहित्यिक ब्लॉगों पर मुफ़्लिस नाम से इधर-उधर रचनाएं - टिप्पणियां देख कर आपका ईमेल ढूंढा , सफल नहीं हुआ ।
शस्वरं पर भी आप पधारे , ईमेल न ख़ोज़ पाने के कारण आभार व्यक्त भी नहीं कर सका ।
यहां हाज़िरी देने का मंतव्य आभार प्रकट करना ही है । उचित समझें तो भावी वार्तालापों / सूचनाओं के आदान-प्रदान हेतु आपका ईमेल पता उपलब्ध करवादें , कृपया।
और हां , आपकी अनेक पुरानी पोस्ट खोल कर शानदार ग़ज़लों का लुत्फ़ उठाया है ( मुक्तछंद फिर कभी पढ़ूंगा )… और सोचने लगा कि ज़रदार ने अपना तख़ल्लुस मुफ़्लिस क्यों रख लिया ?
रहीमजी की याद हो आई … …
"रहिमन हीरा कब कहे लाख हमारो मोल !"
आज्ञा चाहूंगा ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

daanish said...

aadarneey Rajender ji,
१५ मई को आपके यहाँ
पहले ही दस्तक दे चुका हूँ जनाब
आपकी आमद का बहुत बहुत शुक्रिया .

dkmuflis.blogspot.com
dkmuflis@gmail.com
098722 - 11411.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

जनाब मुफलिस जी, मैं इस पोस्ट पर क्या टिप्पणी करूँ... आपने समूचे हालात पर अपनी सच बात कही है.

vijay kumar sappatti said...

MUFLIS SAHEB

NAMASKAR

DERI SE AANE KE LIYE MAAFI CHAHUNGA ...KYA KARU MAIN BHI BHEED KA EK HISSA [ AADMI ] BAN GAYA HOON ...KAYI BAAR TO LAGTA HAI KI MAINE SUBAH DEKHI HAI AUR PHIR DEKHTA HOO TO EK AUR SUBAH DASHTAK DE RAHI HOTI HAI ....DIN ...MAHINE..SAAL .. SAB GUJARTE JAA RAHA HAI ...

KAVITA KO KAYI BAAR PADH CHUKA HOON .. NISHABD HOON .. IS MAUN ME SE BHI KAYI AAWAAJE AA RAHAI HAI ..KYA KAHUN AAPNE TO JAISE MERI HI BAAHVNAAO KO SHBDO KA JAAMA PAHNA DIYA ....

YAAR MERE ..... AFSOS TO YAHI HAI KI MAIN IS DUNIYA ME RAHKAR BHI DUNIYA KA NAHI HO SAKA....HISSA NA BAN SAKA ...

BAS ...

AAPKA
VIJAY

निर्मला कपिला said...

sateek kataksh . bilkul sach kaha aapane kai din baad aane ke liye mafi chahati hoon shubhakaamanayen

Parul kanani said...

ye sach hai ki system ko badlne ki jarurat hai ..par ye bhi sach hai ki ye system hum hi logo se bna hai phir kiski pahal ka intazaar hai!!

गौतम राजऋषि said...

पढ़कर दुष्यंत का एक शेर बेसाख्ता याद आया

वो मुतमुइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए