नमस्कार
लग नहीं रहा था कि आज भी हाज़िर हो पाउँगा,,,
लेकिन वक़्त में कुछ पल ऐसे होते हैं जो ख़ुद पुकारने लगते हैं
"जो वाबस्ता हुए तुमसे, वो अफ़साने कहाँ जाते..."
ख़ैर... ज़िन्दगी के इम्तिहनात अपनी जगह, हालात की
मर्ज़ी अपनी जगह, और इंसान की सोच अपनी जगह ...
एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ.....
ग़ज़ल
बस्ती-बस्ती , सहरा-सहरा ले जाती है मुझ को
अब ख़ुद से मिलने की धुन भी तडपाती है मुझ को
उलझन बन कर, दिन-भर मुझ से, दिन, उलझा रहता है
शाम आती है, साथ बहा कर ले जाती है मुझ को
मैं सच्चा हूँ, तो ख़ुद से फिर क्यूं डरने लगता हूँ
क्यूं मेरी परछाई धोका दे जाती है मुझको
मैं ही कारोबार न सीखूं , तो ग़लती है मेरी
दुनिया तो सब तौर- तरीके बतलाती है मुझ को
आ ! मिल-जुल कर ही अब झेलें 'हम-तुम' ये सूनापन
मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को
आँखों में खालीपन भी है , जीने की ख्वाहिश भी
झूठी -सच्ची आस है कोई, तड़पाती है मुझ को
उलझा-उलझा, तनहा-तनहा, बिखरा-बिखरा 'दानिश'
पल-पल तल्खी, नाम नया ही दे जाती है मुझ को
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34 comments:
बहुत सुन्दर रचना है, खास कर ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई -
मैं सच्चा हूँ, तो फिर, ख़ुद से क्यूं डरने लगता हूँ
क्यूं मेरी ही आवाज़, दग़ा दे जाती है मुझ को
आए तो सही...अच्छा लगा पढ़कर
wahwa....badiya GAZAL Muflis g.....
उलझन बन कर, दिन-भर मुझ से, दिन, उलझा रहता है
शाम आती है, और साथ बहा ले जाती है मुझ को
बहुत सुन्दर गज़ल है मुफ़लिस साहब. ये शेर तो क्या कहूं...कुछ इस तरह की-
दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया रहा,
जब दीवारों से धूप ढली,तुम याद आये तुम याद आये.
बस्ती-बस्ती , सहरा-सहरा ले जाती है मुझ को
अब ख़ुद से मिलने की धुन ही तडपाती है मुझ को
आ ! मिल-जुल कर ही अब झेलें 'हम-तुम' ये सूनापन
मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को
मुफलिस साहब,
मैं क्या कहूँ, इस गजल को पढ़ने के बाद ...
मैं लाजवाब हो गया हूँ
और मेरे पास कुछ कहने को बचा ही नहीं
बस यही गुजारिश है कि
ज्यादा देर न किया करिये आने में,
कुछ लोग यहाँ आपका इंतज़ार करते हैं
आपका वीनस
काश आप सामने होते तो गले लगा कर बधाई देता आपको...लाजवाब ग़ज़ल भाई जान...लाजवाब...वाह...हर शेर बेहद ख़ूबसूरती से कहा गया है...बेमिसाल...
नीरज
मुफलिस जी कुछ ऐसी ही बाते हैं जो आप तक खींच लाती है...
ये शे'र मैं अपने पॉकेट में रख लेता हूँ.
अब सीखूं कारोबार न मैं, तो ग़लती है मेरी
दुनिया, अपने बर्ताव से ये जतलाती है मुझ को
.... मुझसे भी कभी कारोबार न होगा.
आ ! मिल-जुल कर ही अब झेलें 'हम-तुम' ये सूनापन
मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को
....क्या बात है.
आ ! मिल-जुल कर ही अब झेलें 'हम-तुम' ये सूनापन
मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को
आँखों में खालीपन भी है , जीने की ख्वाहिश भी
है, झूठी-सच्ची आस कोई, तड़पाती है मुझ को
हमेशा की तरह बेहतरीन,लाजवाब
हर शे'र ताज़ा तरीन दिल फरेब बातें करता हुआ ! आज सुबह ही आपकी इस ग़ज़ल की चर्चा हो रही थी ... हालाकि तब तक मैं आपकी इस मोहक ग़ज़ल को पढ़ नहीं पाया था ! उलझन बन कर और दिल सच्चा है इन दोनों शे'रों ने करीब से दिल निकाल लिए ... आँखों में खालीपन ... पूरी ग़ज़ल कमाल की बनी है .... तभी तो देखो वीनस लाजवाब हुआ बैठा है ... बहुत बहुत बधाई प्रीमियम की दो घूंट और खुमारी पूरी तरह से हो इस कमाल की गर्मी में ... :)
अर्श
khayaal saare khoobsoorat...
shikastaa si bahr...us par ye....
ham to kul milaa kar shikastaa ho gaye hain ji...
aapke khayaalon se sahmat.....
ghaza ki baarikiyaan bhi kyaa baarikiya hain...!
अहा....कल दो दिन की थकान एकदम से इस शेर ने निकाल दी:-
"उलझन बन कर, दिन-भर मुझ से, दिन, उलझा रहता है / शाम आती है, और साथ बहा ले जाती है मुझ को"
क्या बात है उस्ताद...क्या बात है।
और एक बात जो कहनी थी वो ये कि तन्हाई को लेकर जितने खूबसूरत शेर आप निकालते हो, वो नजारा किसी और की ग़ज़ल में नहीं मिलता है "आ ! मिल-जुल कर ही अब झेलें 'हम-तुम' ये सूनापन/मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को"...इस शेर की बयानगी पर जितनी दाद दी जाये , कम है गुरूवर।
शिकस्ता बहर आपसे ही सीखा है हम सबने...उसको समझना और निभाना। मनु जी से मैं भी सहमत।
बेहतरीन
बहुत सधी हुई परिपक्व रचना, बह्र ख़ूब निभी - और तन्हाई की सोच तो जैसे पुरानी हवेली के किसी दरीचे से कबूतर की गुटरगूँ आ रही हो।
बस ये गुटरगूँ जब कई रोज़ तक नहीं आती तो लगता है कि ग़ज़लिया नख़लिस्तान किसी वीराने में तब्दील हो गया …
मुफलिस जी, ग़ज़ल कमाल कर रही है, हर शेर खूबसूरत है.
मतले में आपने जो मंज़र बांधा है उसके बारे में कुछ कहें नहीं बन रहा, इसकी खुमारी से निकलें इससे पहले अगले शेर ने जान ले ली, "उलझन बन कर........", और फिर तो कत्ले-आम मकते तक चला.
बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है आपने.............
अब ख़ुद से मिलने की धुन ही तडपाती है मुझ को
क्यूं मेरी ही आवाज़, दग़ा दे जाती है मुझ को
मैं तन्हाई को , तन्हाई समझाती है मुझ को
आँखों में खालीपन भी है , जीने की ख्वाहिश भी
है, झूठी-सच्ची आस कोई, तड़पाती है मुझ को
ग़ज़ब की पंक्तियाँ हैं मुफलिस जी ।
हमेशा की तरह शानदार ।
शुभकामनायें ।
@manu
@gautam
shikastaa !!
16+12 mei bhi ??
WAIT!!!
bahut hi adbhut panktiyan :)
http://liberalflorence.blogspot.com/
http://sparkledaroma.blogspot.com/
Nahin Shabdon mein byaan hota, kissi ka andaaz e byaan 'saahb'
Hairaan isi baat se raat bhar hote rahe, usne yeh baat likh kaise di
बस्ती-बस्ती , सहरा-सहरा ले जाती है मुझ को
अब ख़ुद से मिलने की धुन भी तडपाती है मुझ को
ahaaa khud se milne ki dhun bahut sunder baat
मैं सच्चा हूँ, तो फिर, ख़ुद से क्यूं डरने लगता हूँ
क्यूं मेरी ही आवाज़, दग़ा दे जाती है मुझ को
hmmm gahra sawal hai .......
उलझा-उलझा, तनहा-तनहा, बिखरा-बिखरा 'मुफ़लिस'
पल-पल की तल्ख़ी नाम नया दे जाती है मुझ को
sabko apna lagne wala sher
jeevan की व्यस्तता में कुछ पल अपने लिए निकालने ही चाहिये..बहुत अच्छी लगी यह नयी ग़ज़ल .
ख़ास कर यह शेर-:
'आँखों में खालीपन भी है , जीने की ख्वाहिश भी
है, झूठी-सच्ची आस कोई, तड़पाती है मुझ को'
खालीपन होते हुए भी जीने की ख्वाहिश आस और निराशा के बीच संतुलन बनाये हुए है.
-हर बार की तरह यह भी एक बेहतरीन प्रस्तुति है.
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अब सीखूं कारोबार न मैं, तो ग़लती है मेरी
दुनिया, अपने बर्ताव से ये जतलाती है मुझ को
आम बोलचाल के शब्दों से जितनी आसानी से आप शेर निकल लेते हैं ... हर किसी के बस की बात नही ....
हर शेर कुछ बात लिए होता है ...
sorry muflis...tadpati hai mujh ko...radeef wali ghazal matle ke elava musalsal...kabhi pehle kabhi doosre misre ke hawaale se...bewazan hai.....bohat naummeedi huwi bhai
sorry muflis bhai.............aap ke itne chahane wale hain....????
main ne aap ki dilshikni kar di,shayadd.....
yaar aap ke address ko jyon hi log on kiya...gazal saamne thi....tippaniyaan ka ikon saamne tha.....bebaak taasuraat likh chuka to....!!!!!!
baqi logoun ki rai padh raha houn....ab bohat bura lag raha hai...khair jo huwa achcha huwa.....
मैं सच्चा हूँ, तो फिर, ख़ुद से क्यूं डरने लगता हूँ
क्यूं मेरी ही आवाज़, दग़ा दे जाती है मुझ को
आँखों में खालीपन भी है , जीने की ख्वाहिश भी
है, झूठी-सच्ची आस कोई, तड़पाती है मुझ को
अच्छे शेर बने हैं...आत्मांदोलन की कशमकश प्रायः भारी पड़ती है
बेवजन....?
कहीं...किसी भी तरह से नहीं.....!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
हाँ, पहली नज़र में हमें भी ये धोखा हुआ था.....मगर इसमें खुद अपना ही नुस्ख मान कर इसे बार बार पढ़ते रहे...
देर से ही सही...पर इसकी सही लय तक पहुँच गए...
सच ....आसान नहीं था इसे पढ़ना...
और अब सच कहें..अब बड़ा सुकून हासिल हुआ है...
आज से पहले कभी आपको बेवजन नहीं देखा ...इसीलिए ये पूरा यकीन था कि हमारे पढने में ही कुछ कमी रही होगी....!
:)
एक बात और ......
लियाकत साहिब का ब्लॉग देखना चाहा..मगर प्रोफाइल उपलब्ध नहीं है...या कोई है तो वहाँ तक हम जैसे आम इन्सान का पहुंचना संभव नहीं है....
बहरहाल...
@ लियाक़त 'jiiiii'..... अगर आपको कोई कमेन्ट देना ही है तो ये मत सोचिये कि मुफलिस जी के कितने चाहने वाले हैं...
दूसरे...हमने 'मुफलिस' शब्द सिर्फ तखल्लुस में ही सुना है बिना " जी " लगाए...
मैं आपकी तख्लीकात का मुरीद हूँ, यह शायद कहने-बताने की जरूरत नहीं. मैं इस गजल को शायद पोस्ट होने के तीसरे रोज़ से देख रहा हूँ और लुत्फ़अन्दोज़ हो रहा हूँ. चोट ने बहुत से काम रोक रखे थे, तास्सुरात के इज़हार में भी देर का बाइस यही है.
मेरे सामने एक सवाल है, किस शेर को हासिल-ए-गजल करार दिया जाए. मतला ता मक्ता, जो जादू बिखरा हुआ है, उससे कोई काफ़िर ही बच सकता है.
मैं मस्का नहीं लगा रहा हूँ, आप शायद मेरे मिज़ाज से बखूबी वाकिफ हैं. अशआर को मआनी देने, बहर में पिरोए रखने, रवानी, अलफ़ाज़- सारे लवाजमात जिस तरह आप ने करीने से सजाए हैं, वो सब किसी को भी हसद में मुब्तिला कर सकते हैं.
मैं खुद शायद जलन महसूस कर रहा हूँ. एतराफ करता हूँ कि ऐसे कंटेंट्स, ऐसे जज्बात को अशआर में समोना, अपने बस की बात नहीं.
एक शेर..... मैं सच्चा हूँ तो फिर खुद से क्यों डरने लगता हूँ...... रच कर आप खुद को उस मुकाम पर पहुंचाने में कामयाब हो गए, जहां की ख्वाहिश हम जैसों की हसरत है.
नमस्कार मुफ़्लिस साहिब,
आप का ख़त्त आज ही पढ़ा (पिछले दिनोँ मैँ सिँहपूर से शिकागो के सफ़र मेँ था) । मेरा ई-मेल है "roshbaby (at) gmail (dot) com" ॥
फ़ुर्सत मिलते ही मैँ आप को फ़ोन भी करूँगा ॥
रौशन
बस्ती-बस्ती , सहरा-सहरा ले जाती है मुझ को
अब ख़ुद से मिलने की धुन भी तडपाती है मुझ'
-खुद से मिलने की धुन खुद में एक तड़प है और सच्ची ताड़प है.
को
आज दोबारा आया, पढ़ी ये ग़ज़ल फिर से, फिर नई
ग़ज़ल पर गया - और देखिए कि अभी तो सोच से निकल कर जिस्मानी शोख़ी के शे'र ने पहले मुकम्मिल होने की ठान ली-
तेरी अँगड़ाई टूटी तो क्या-क्या टूटा दिल में
ज़ुल्फ़ सुलझने में भी कितना उलझाती है मुझको
रग-रग में महशर बर्पा-ज़िन्दा हूँ ये तो तय है
ख़ुश्फ़हमी फिर मुस्काने को उकसाती है मुझको
तरक़ीबें-तदबीरें सब नाकाम हुईं तक़दीरन
ख़ुद को खो कर ख़ुश रहने की ढब आती है मुझको!
जाने कौन किसे कब किसका भेस बदल मिल जाए
क़ुदरत भी यादों-ख़्वाबों क्या समझाती है मुझको!
छोटी बच्ची बनकर जब-जब ज़ीस्त गले लगती है
रूह तलक ठण्डक दे कैसे बहलाती है मुझको
जब ज़िद कर ले गज़ल "कहो!" मैं कहने लगता, वर्ना-
बात तलक ढंग से कब ख़ुद कहनी आती है मुझको
मुफ़्लिस की ग़ज़लों की दम या-सर्वत की हमदर्दी
नीरज का अन्वारे-सुख़न! लज्जा आती है मुझको
तो ये तय रहा कि आपकी ग़ज़ल तो कमाल है भाई! इतना पानी मिलाने के बाद भी इतना गाढ़ा रस!
जय हो! अब अगर आप इजाज़त बख़्शेंगे तो ये तिनके बटोर ले जाऊँगा, शायद नशेमन तामीर हो ही जाए…
muflis ji
ye gazal kaise mis ho gayi mujhse ..
kya khoob sarkaar , kya khoob ...kya baat hai , aajkal bada philosphical mahaul ho gaya hai .. kuch ishq ki baate kare huzoor...
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