Saturday, July 3, 2010

नमस्कार
दूरी... भला किसे अच्छी लगती है,, हाँ , ये और बात है
कि वक़्त और हालात इस बात की इजाज़त ना दें कि
इंसान हर बार अपनी ज़िद और मर्ज़ी चला सके ...
लीजिये ... एक ग़ज़ल हाज़िर-ए-ख़िदमत है .........


ग़ज़ल


कब , किसको , क्या देना है , ख़ुद आँके है
ऊपर वाला , पोथी सब की जाँचे है

खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है

क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है

खूब सजा रहता है छप्पन-भोग कहीं
और कोई बस रूखी-सूखी फाँके है

है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की

पल-पल गगरी छलके, मनवा काँपे है

जो क़िस्मत में लिक्खा है , मिल जाएगा
हाथों की तू व्यर्थ लक़ीरें बाँचे है

है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है

जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'दानिश' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है




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45 comments:

Dr.Ajmal Khan said...

ज़मीनी हक़ीक़त को बयान करती आप की गज़ल खूबसूरत है,दाद क़ुबूल हो........

डॉ टी एस दराल said...

क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है

बेहद संवेदनशील ।

है मुट्ठी - भर राख , नतीजा जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है

जिंदगी की असलियत ।

बहुत सुन्दर ग़ज़ल ।
मुफलिस जी , इंतजार थोडा कम कराया करें ।
आभार ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत संवेदनशील रचना ...

"अर्श" said...

एक गहरी सांस लेकर छोड़ रहा हूँ , यह सोचते हुए के टिपण्णी क्या करूँ ? ग़ज़ल की बातें बाद में पहली बात तो ये की आजकल आप हैं कहाँ , ऊपर इस नविन काफिये के साथ निबाह , मतला पढ़ते ही दंग रह गया था , सारे ही शे'र उम्दा हैं मगर , वो शोर और मुट्ठी भर राख वाली बात बेहद खुबसूरत लगी ..... बधाई कुबूल करें ...


अर्श

इस्मत ज़ैदी said...

मतले से मक़ते तक हर शेर ख़ुद को एक से ज़्यादा बार पढ़ने को मजबूर करता है,ख़ास तौर पर ये शेर

जो क़िस्मत में लिक्खा है , मिल जाएगा
हाथों की तू व्यर्थ लक़ीरें बाँचे है

तो एक ऐसी हक़ीक़त बयान कर गया कि जिसे इंसान स्वीकार कर ले तो शायद ज़िंदगी बेहद ख़ुश्गवार हो जाए,ये मारा मारी ,भाग दौड़,एक दूसरे से सबक़त ले जाने की होड़ .............कुछ बाक़ी न रहे अम्न ओ अमान क़ायम हो जाए

है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है
ज़िंदगी की ठोस सच्चाई को बयान करता हुआ
इस कामयाब ग़ज़ल के लिये मुबारक्बाद क़ुबूल फ़रमाएं

हरकीरत ' हीर' said...

है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है

जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'मुफ़्लिस' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है


आपकी कलम हमेशा गहराइयों को छूती है ....


ग़ज़ल ज़िन्दगी को आईना दिखलाती है ......!!

दिगम्बर नासवा said...

खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है ..

आम आदमी .. आम भाषा .. ज़मीन से जुड़े शेर ....
आप जब भी लिखते हैं कबीर की याद आ जाती है ... साची सरल बात कहते हैं ...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है
मुफ़लिस जी...
इस शेर के दो मिसरों मे.....
जाने कितने लोगों का फ़साना बयान कर दिया आपने.

क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है
संस्कारों के अभाव में बदलती जा रही सामाजिक व्यवस्थाओं का यथार्थ.
गज़ल का हर शेर उम्दा है.

के सी said...

मुफलिस साहब आपका आना अक्सर मेरी ही तरह तय नहीं होता
तो समझ लेता हूँ कि ज़िन्दगी जितना देती है उससे ज्यादा माग लेती है.
इस खूबसूरत ग़ज़ल पर आपको बहुत बधाइयां.
सब शेर बेहतरीन एक जो दिल में उतर गया है वह है
क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है.

पुनः शुभकामनाएं कि आप ऐसे ही ज़िन्दगी को संवारने वाले शेर कहते रहें.

नीरज गोस्वामी said...

सीधे सादे लफ़्ज़ों में ज़िन्दगी का पूरा फलसफा बयां करना आपका हुनर है जिस पर हमें रश्क है....बेहतरीन ग़ज़ल कही है मुफलिस साहब...बेहतरीन...एक एक शेर कलेजे से लगा लेने के काबिल है...

नीरज

pran sharma said...

MUFLIS SAHIB,AAPKEE GAZAL KE SABHEE
ASHAAR PADH KAR BAHUT ACHCHHA LAGAA
HAI.UMDAA SHAAYREE PADHNE KO MILEE
YE MERAA SAUBHAGYA HAI.

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

बाऊ जी,
नमस्ते!
सत्य वचन!
आशीष, फिल्लौर
www.myexperimentswithloveandlife.blogspot.com

manu said...

kyaa kahein ab...


ghazal ki baat karein yaa...

ghazal ke alaawaa

manu said...

comment No. 13......

wo bh meraa.....










:(

अमिताभ श्रीवास्तव said...

गज़ल और जीवन ये दोनों का रिश्ता आपस में गहरा है। आप जैसे हूनरमन्द इसे लिखते हैं तो जीवन की गहराइयों में जो छिपा होता है वो दिखाई देने लगता है।
है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है
एक छोटा सा सच मगर अपना विस्तृत रूप लिये।
मुफ्लिसजी, बहुत खूब कहा है आपने..लाजवाब।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

मुफ़्लिस साहब
आदाब अर्ज़ है !
जनाब, बहुत शानदार मत्ले से आग़ाज़ किया है …
कब, किसको,क्या देना है,ख़ुद आंके है
ऊपर वाला , पोथी सब की जाँचे है

… और क्या मुसलसल कहा है …
जो क़िस्मत में लिक्खा है,मिल जाएगा
हाथों की तू व्यर्थ लक़ीरें बांचे है

है मुट्ठी भर राख, नतीजा जीवन का
फिर भी क्यूं इंसां बस अपनी हांके है

कुछ दिन से नेट बंद था , आज ही ठीक हुआ …

आपके यहां आ'कर मन की प्यास बुझी , शुक्रिया !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

manu said...

मतला बहुत गहरा है..

खुद आँके है...बहुत खूब...कितनी सही बात ..सीधे सादे शब्दों में..

है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की
पल-पल गगरी छलके , मनवा काँपे है

सूफियाना शे'र...
और मक्ता...


जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'मुफ़्लिस' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है

लाजवाब...

कभी

manu said...

आजकल कमेंट्स जाने कहाँ हवा हो रहे हैं....समझ नहीं आ रहा...बिलकुल भी..कभी छपता है कभी गायब हो जाता है..

manu said...

खैर...

एक बात कहनी पड़ेगी...;फ़ेलुन' को आपने ही साधा हुआ है...

Arun said...

kya kahoon

Zindgi kuchh aur hai, taleem o amal kuchh aur
Kitaabon ka sach kitaabon tak hi rehne do

Sach bolo keh to rahein hein sabhi, maane uska jhuth hi hai

Sach mein sach kitna hai aapne sahi kaha..

Pawan Kumar said...

वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही शानदार है......जब भी आपके ब्लॉग पर आता हूँ कुछ नया सीखने को मिलता है. इस बार इस शेर ने दिल का चैन लूट लिया....लोक भाषा और व्यवहार को अलफ़ाज़ का क्या ही खूबसूरत जमा पहनाया है आपने......बहुत बहुत बहुत बहुत बधाई......!
है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की
पल-पल गगरी छलके , मनवा काँपे है
*****
जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'मुफ़्लिस' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है

सतपाल ख़याल said...

है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की
पल-पल गगरी छलके , मनवा काँपे है

wahwa!!

Parul kanani said...

sabne itna kuch keh diya..kya kehoon ..amazing!

S.M.Masoom said...

खूब सजा रहता है छप्पन-भोग कहीं
और कोई बस रूखी-सूखी फाँके है
हक़ीक़त को बयान किया है.

HBMedia said...

shandar aur jaaandar gajal....bahut khub

निर्मला कपिला said...

बहुत अच्छी गज़ल समाज की सही तस्वीर्\क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है

खूब सजा रहता है छप्पन-भोग कहीं
और कोई बस रूखी-सूखी फाँके है



जो क़िस्मत में लिक्खा है , मिल जाएगा
हाथों की तू व्यर्थ लक़ीरें बाँचे है

लाजवाब अशार हैं बधाई।

Himanshu Mohan said...

है वैसे भी कठिन डगर ये पनघट की
तुम चलते हो तो आसाँ सी लगती है
मुफ़्लिस ये अंदाज़ रहे क़ायम तेरा
तेरे दिल में पीर जहाँ की लगती है

संजीव गौतम said...

कब , किसको , क्या देना है , ख़ुद आँके है
ऊपर वाला , पोथी सब की जाँचे है

खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है

क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है

बहुत खूबसूरत अशआर हुए हैं सर.
ऊपर वाला पोथी सबकी बांचे है. क्या कहने हैं इस कहन के बहुत उम्दा! बहुत उम्दा! वह!
कुछ महीने आराम के बाद फिर से हाजिर हूं लेकिन नया ब्लाग बनाना पड़ा है क्योंकि पुराने का पासवर्ड कहीं गुम हो गया.
नये ब्लाग का यू0आर.एल0 है-
http://kabhi-to.blogspot.com

राजेश उत्‍साही said...

शुक्रिया मु‍फलिस जी। आप मेरे ब्‍लाग पर आए। इस बहाने मुझे भी मौका मिला आप तक पहुंचने का। इस दिल छू लेने वाली शायरी के लिए बधाई।

Subhash Rai said...

Muflisjee ap ke liye, tippadi ke liye nahee, dekhen jaroor
http://sakhikabira.blogspot.com/2010/07/blog-post_14.html

डॉ टी एस दराल said...

मुफलिस जी , शुक्रिया ।
मैं तो खुद आपकी इ-मेल आई डी ढूंढ रहा था ।
लीजिये --tsdaral@yahoo.com

ZEAL said...

है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है...

I very much liked the philosophy of life described in the creation..

Thanks.

Ankit said...

नमस्कार मुफलिस जी,
बहुत अच्छे शेर कहें हैं, काफिये को बहुत अच्छे से निभाया है,

इस शेर में जो सच आपने सीधे साधे और सधे हुए लफ़्ज़ों में कहा है उस हुनर का मैं कायल हो गया हूँ.
खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है
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इस शेर को बारहां सलाम करता हूँ, कुछ कह के इसके कद से गुस्ताखी नहीं करूँगा,
क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है
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सच्चाई समेटे हुए ये शेर, ज़मीनी हकीकत से रूबरू करवा रहा है,
खूब सजा रहता है छप्पन-भोग कहीं
और कोई बस रूखी-सूखी फाँके है
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पनघट, गगरी प्रतीकों के रूप में निखर के आये हैं, और आपकी छाप इन्हें बेहद खूबसूरत बना रही है,
है वैसे भी राह कठिन ये , पनघट की
गगरी, पल-पल छलके, मनवा काँपे है
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ग़ज़ल का मक्ता इंसानी डर को सटीक शब्द दे रहा है,
जब तेरे मन में ही कोई खोट नहीं
क्यूं 'मुफ़्लिस' ख़ुद को पर्दों से ढाँपे है

कुल मिलकर पूरी ग़ज़ल सहजने के लिए है, आपको बहुत बहुत बधाई और शुक्रिया इससे मिलवाने के लिए.

Rajeev Bharol said...

बहुत अच्छी गज़ल.

"क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है"

यह शेर बहुत ही अच्छा लगा!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

वाह वाह वाह ! बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल है ... खास कर ये पंक्तियाँ तो गजब के हैं -

है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है

Anonymous said...

बहुत बढिया!

hem pandey said...

'है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है'
- शाश्वत प्रश्न.

अनामिका की सदायें ...... said...

जिंदगी के गहरे घावों को उभार दिया...

संवेदन शील रचना.

अपूर्व said...

आपकी ग़ज़लों के बारे मे कुछ कह पाने की हैसियत नही है मेरी..इतना कहूँगा कि अशआरों की हकीकतबयानी अक्सर सूखी रोटी के उस टुकड़े सी होती है जिसे बिना पानी सूखे ही हलक से उतारना होता है..मगर निगल पाने की यही मुश्किल जिंदगी भी बख्शती है..

Asha Joglekar said...

खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है

क्यूं मेरे बच्चे अब समझें शोर उसे
मेरा बूढ़ा बाप ज़रा जब खाँसे है
Muflis sahab bahut din bad idhar aana hua par gazal padh kar sarthak ho gaya.

गौतम राजऋषि said...

हुजूर...इन नायाब काफ़ियों ने तो कहर ढ़ा दिया है।
हर बार की तरह चंद अनूठे अशआर लिये हुये ग़ज़ल "मुफ़लिस" तखल्लुस को नयी ऊँचाईयां देती हुयीं...

कुछ अजब-सी व्यस्ततायें,,छुट्टी बीच में ही रद्द हो गयी और बाद में ...बहुत बाद में आपकी तबियत ठीक नहीं होने की खबर मिली। हमारी समस्त शुभकामनायें आपके लिये गुरूवर। काल करता हूं फुरसत से...

सर्वत एम० said...

आज एक बार फिर कमेन्ट के लिए तैयार हुआ हूँ. इससे पहले ४-५ दफा कोशिश कर के नाकाम हो चुका हूँ. कमेन्ट बॉक्स ने मेरा मेसेज लेने से ही इनकार कर दिया. अब भी छुआछूत की प्रथा न सिर्फ कायम है बल्कि उसने ब्लॉग जगत को भी लपेटे में ले लिया है.
खैर, ये इतनी जानदार-शानदार गजल जो आपने पोस्ट तो अरसा पहले की थी, मकसद तो यही था ना कि लोग पढ़ें और अपने तास्सुरात कलमबंद करें. अब इसे पढने के बाद जो जलन और हसद पैदा हो रही है उसका लिखना जायज़ होगा क्या? भाई इतना अच्छा मत लिखा करें कि हमा शुमा एहसासे कमतरी का शिकार हो जाएं. मैं सच कहूं, तारीफ के लिए अल्फाज़ नहीं हैं मेरे पास.

vijay kumar sappatti said...

muflis saheb , deri se aane ke liye maafi ...

bahut der se ye gazal padh raha hoon , aapne human dimensions ko apne shbdo me dhaal diya hai .. ek ek sher jabardasht hai ..
कब , किसको , क्या देना है , ख़ुद आँके है
ऊपर वाला , पोथी सब की जाँचे है
waah waah .. waah
है मुट्ठी - भर राख , नतीजा, जीवन का
फिर भी क्यूं इंसान बस अपनी हाँके है
aur ye to bas subhaan allah ..
sir ji meri tarf se aaj do tumba ho jjaaye iske liye

badhayi ho ji

मनोज भारती said...

जिंदगी का सही फलसफा दिया है आपने ...

Dr.Bhawna Kunwar said...

खुशियों में तो सब चाहें भागीदारी
दर्द भला अब कौन किसी का बाँटे है
हकीकत को स्पर्श करती ये पंक्तियाँ दिल को भी स्पर्श कर गईं...