"तर्ज़े बयाँ" की बनावट ही कुछ ऐसी अधूरी और
अटपटी है किमुझे ब्लॉग-जगत में होती रहने वाली आहटों का
समय रहते पता ही नहीं चल पाता,,, कब किसी
ब्लॉग-मित्र द्वारा कोई रचना डाल दी जाती है, उसकी
खबर मुझे अपने ब्लॉग से नहीं हो पाती ....
अत: मैं सभी साथियों से क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैं
मुनासिब वक्त पर वहाँ हाज़िर नहीं हो पाता हूँ।
ख़ैर एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हुआ हूँ .....
ग़ज़ल
चार:गर का फ़ैसला कुछ और है
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ
इम्तिहानों का नशा कुछ और है
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है
जो बशर मालिक की लौ से जुड गया
'दानिश' उसका मर्तबा कुछ और है
_________________________________
_________________________________
चार;गर = चारागर , इलाज करने वाला
रज़ा = मर्ज़ी ,,, पुरसुकून = सुख देने वाली
लफ़्ज़ = शब्द ,,,, मानी = अर्थ
सुख़न = काव्य सृजन
मर्तबा = रूतबा
37 comments:
ग़ज़ल पढकर बहुत अच्छा लगा।
आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को श्री कृष्ण जन्म की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!
behad umda prastuti.
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
मुजस्सम हक़ीक़त !
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
बहुत ख़ूब!
ज़िंदगी के हुसूल का justification भी तो ज़रूरी है
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
वाह!
मोआशरे का एक नज़रिया ये भी है और शायद इसी में आ’फ़ियत भी है
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
बहुत ख़ूबसूरत मिसरा मआ’नी व मक़ासिद का एक जहान समेटे हुए
इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये मुबारकबाद क़ुबूल करें
भाई जान
आदाब
आपने अपने आलस्य का ठीकरा बिचारे अपने कम्यूटर के माथे फोड़ दिया है जो गलत है...हकीकत ये है के आपके पास दूसरों का लिखा पढने का वक्त ही नहीं है...जब वक्त मिलता भी है तो " कौन पढ़े...अभी, बाद में पढेंगे..." वाली सोच ज़ेहन में हावी हो जाती होगी...वर्ना जनाब जहाँ चाह वहां राह होती है...एक काम करें जिनकी रचनाएँ आप पढना चाहते हैं उनके ब्लॉग का अनुसरण करें...जैसा के हमने आपका किया हुआ है...बस...उसके बाद वो जब भी कुछ पोस्ट करेंगे उसकी खबर खुद-ब-खुद आपके पास आ जाएगी....:))
अब बात आपकी ग़ज़ल की...भाई जान गंगोत्री है आपकी कलम...वहां से जब भी निकलेगी गंगा ही निकलेगी...उसी की तरह पावन और निर्मल...डुबकी लगाने वालों को आनंद से भिगोती हुई...किस शेर की बात करूँ और किसे छोडूँ? बेहतरीन काफिये पर लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने...दिली दाद कबूल करें...आपके ये अशआर अपने साथ लिए जा रहा हूँ...मांगने पर भी नहीं लौटाऊँगा ...कसम से...
जान लेवा मतला है :-
चार:गर का फ़ैसला कुछ और है
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है
और इस शेर की मासूमियत...आये हाय...
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
ज़िन्दगी का फलसफा क्या खूब बयां किया है:
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
और इस शेर ने तो कुछ कहने लायक छोड़ा ही नहीं...बोलती ही बंद कर दी है...
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
सुभान अल्लाह...जियो भाई जान...बरसों बरस जियो और ऐसे ही अनमोल शायरी की बरसात से हमें तर बतर करते रहो...आमीन...
नीरज
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
सभी अश आर एक से बढ़कर एक ।
लेकिन इन दोनों में कुछ ज्यादा ही सच्चाई झलक रही है ।
मुफलिस जी , आपके ब्लॉग पर फोलो करने वाले ब्लोग्स की लिस्ट दिखाई नहीं दे रही । जिन को भी आप फोलो करेंगे , स्वत : ही उनके लेख आपके ब्लॉग पर प्रकट हो जायेंगे ।
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें ।
तकलीफ हुई कि आपके इतना उकसाने के बावजूद एक शे'र तक नहीं कहा गया इस ज़मीन पर..
जब कि ग़ज़ल पढ़ते लग रहा है जैसे..ये हमें ही कहनी चाहिए थी...
चारा गर का फ़ैसला कुछ और है
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है..(अपना पुराना रोग है ये तो..)
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
(शायद...ऐसा ही है..)
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
(.....क्या कहें...? )
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
:(
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
लग रहा है...
होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ
इम्तिहानों का नशा कुछ और है
ह्म्म्मम्म....
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का ,कुछ और है..
इन ही सब आशा'र से आजकल दो चार हो रहे हैं..
और यहाँ तक कि...
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
वो बात और कि कुछ कहा नहीं जा रहा...
लफ्ज़ से मुफलिस नहीं लगते मियां
क्या सुखन इसके सिवा कुछ और है ?
एक मक्ता होते होते रह गया..
'बेतखल्लुस' फायिलातुन और है...
kyaa kahein...?
आदाब!..वाह, वाह!....आप के ब्लॉग पर आ कर बहुत अच्छा महसूस हो रहा है!.....पवित्र रमजान के पर्व पर ढेरों शुभ-कामनाएं!....जन्माष्टमी के मंगल पर्व पर बधाई, शुभ-कामनाएं!
वाह!
वाह!
वाह!
वाह!
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
बहुत ख़ूब!
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
Is pe koyi kya kah sakta hai,bas ek wah ke alawa!
bahut khoob, wah wah.....
चार:गर का फ़ैसला कुछ और है
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है
दुआ है दर्द देने वाले तक आपकी सदा जल्द पहुंचे .....!!
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
जी वक़्त का हर शय पे राज़....
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
दरवाजे खुले रखियेगा ....क्या पता कभी लौट आये .....!!
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
सोचने वाला कभी संतुष्ट हुआ है भला ....!!
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
क्या kahun is baar to belafz hun ......!!
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
ये इंतिहा है जो आदिम काल से कही जाती रही है सबने अपने अपने अंदाज से लेकिन ये अंदाज सबसे जुदा है।
पूरी ग़ज़ल अद्भुत है। आपकी हर ग़ज़ल से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है।
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है
जो बशर मालिक की लौ से जुड गया
'मुफ़्लिस' उसका मर्तबा कुछ और है
bahut gahri baat likh di muflis ji, sabhi sher kuchh kahte hue kuchh chhipate hue, bahatareen, bahut bahut mubarak.
बाऊ जी,
नमस्ते!
आप लगते हैं हमें कोई फ़रिश्ते!
इंसान तो नहीं इतना खूबसूरत लिखते!
जय हो!
आशीष, फिलौर
मेल - जोल आपस में, होता था कभी
अब ज़माने की हवा कुछ और है
मुफ़लिस जी,
कमाल का शेर है,
याद रहने वाला...
गाहे-बगाहे सुनाए जाने वाला...
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
जी, सच कहा है....
वाक़ई ये दुश्वारियां तो हैं...
और अच्छी ग़ज़ल में मक़ता भी बहुत शानदार है.
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है
जो बशर मालिक की लौ से जुड गया
'मुफ़्लिस' उसका मर्तबा कुछ और है
wahwaa!!!!!!!!!!..bahut umda ghazal aur sufiana khayaalaat...kya kahne !!! jiyo
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
wahwa!!
वो अमूमन कहता था कुछ शे'र पर
आज मोती सा कहा कुछ और है
बहुत ख़ूब ग़ज़ल - गौहरनुमा, चुनिंदा!
bahut achi rachna....
A Silent Silence : Mout humse maang rahi zindgi..(मौत हमसे मांग रही जिंदगी..)
Banned Area News : Katy Perry is a pillow thief
Badal rahi hai zamaane ki hawa, sabhi jaante hein
Inqlaab ko magar ‘saahb’ padti koee awaaz nahin
Apka blog meri pasandeeda activities mein se ek hai
Na sehar ka ilam hai ab na shaam ki pehchaan
Tere ishaq mein bus araam hi araam hai
Tamanayee hoon tera hi, e mere humdum
Bekhud bhi dekha gaya hoon, tere khyaal mein
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
है तक़ाज़ा, सच को सच कह दें , मगर
मशवरा हालात का , कुछ और है
मुफ़लिस जी ... आपकी ग़ज़लों में ताज़गी और समाज की सच्चाइयों का बोल बाला रहता है ... कथ्य और शिल्प से बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है ... बहुत ही लाजवाब शेर हैं सब ....
लफ़्ज़ तू , हर लफ़्ज़ का मानी भी तू
क्या सुख़न, इसके सिवा , कुछ और है?
vaah!
आप बाकि ब्लौग को छोड़िये और जल्दी-जल्दी बस अपनी ग़ज़लें पढ़वाते रहिये हमें।
ग़ज़ल के जादू में डूबा टिप्पणीयों पर आया तो मनु की बेतखल्लुसी देखते ही बन रही है।
पहले तो एक बेमिसाल मतले पर करोड़ों दाद कबूल फरमायें।...और इस शेर "होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ/इम्तिहानों का नशा कुछ और है" में झलकता आपका फौलादी विल-पावर, जिसका उदाहरण हम सब देख चुके हैं अभी-अभी कि किस तरह आपने उस नामुराद रोग को लड़कर भगाया...ये शेर संक्रमित करने वाला है। हमने रट लिया है जगह-जगह सुनाने के लिये।
फिर से पढ़ने आता हूँ इस नायाब ग़ज़ल को।
आदाब हुज़ूर ,
हर शे'र को हिसाब से और हिफाज़त से पढ़ रहा हूँ कहीं कुछ छुट ना जाए और नज़ाकत में कहीं कोई कमी ना रह जाए जिस अदब और नज़ाकत से आपने ये ग़ज़ल कही है ... हर शे'र कमाल का है ...किस शे'र को लेकर आऊं ... बस इसी सोंच में हूँ ...
अर्श
bahut hi khoobsurat gazal hai....
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
bas isme poori baa kah dali aapne...
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है.....
अजी अपना पता बता दो जल्दी से .....
वरना बहुत छोटी है जिन्दगी देख न पाएगी ....ढूँढती रह जाएगी ......
होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ
इम्तिहानों का नशा कुछ और है..
सच कहा
.
वाह, आपके ब्लॉग पर आना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है । ये गज़ल भी कमाल है ।
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
होती होंगीं पुर-सुकूँ , आसानियाँ
इम्तिहानों का नशा कुछ और है
बहोत खूब।
मुफ्लिश जी ,
क्या कहे और क्या न कहे .. आपके शेर सिर्फ आपकी गज़ल का हिस्सा नहीं होते है , वो हर उस इंसान का हिस्सा होते है , जिनके जिस्म में दिल धडकता है .. हर शेर पर मैं कुर्बान , हर शेर पर मैं फ़िदा... आपको झुककर सलाम करता हूँ मुफ्लिश जी .... इस गज़ल ने आपको शायरी के सिंहासन पर बिठा दिया है ...
मेरा दिल से बधाई स्वीकार करे..
जो बशर मालिक की लौ से जुड गया
'मुफ़्लिस' उसका मर्तबा कुछ और है
माशाल्लाह
शख्स हर पल सोचता कुछ और है
वक्त की लेकिन रज़ा , कुछ और है
बहुत खूब.
है बहुत मुश्किल भुला देना उसे
लेकिन उसका सोचना कुछ और है
Muflis ji...aapke blog par aana saubhagya ki baat hai, dil ki baat, sahaj sahaj shabdon mein dil ko choone mein kamayaab hui hai...bahut khoob likha hai
मुफलिस जी, बहुत खूबसूरत मतला कहा है, वाह वाह
चार:गर का फ़ैसला कुछ और है.
दर्द की मेरे , दवा , कुछ और है
"साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं .............." इस जज़्बे को कोशिश करता हूँ अपनी ज़िन्दगी में उतरने की.
"जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी............'' अहा, शेर को कहने का अंदाज़. मज़ा आ गया
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है'
बहुत उम्दा!
जाने , कब से ढूँढती है ज़िन्दगी
हो न हो, मेरा पता कुछ और है
बहुत खूब लिखा है!वाह!
साँस लेना ही फ़क़त , जीना नहीं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कुछ और है
बहुत खूब
Post a Comment