Friday, December 10, 2010

किसी भी तरह से, कोई भूमिका ज़हन में नहीं रही है
कुछ 'यूं-ही-सी' व्यस्तताएं , कुछ
एक साहित्यिक पत्रिका "सरस्वती-सुमन" (देहरादून) के
'ग़ज़ल-विशेषांक' के अथिति-सम्पादन का जोखिम भरा कार्य ,,,
बस, ये सब मिल कर ही इम्तेहान लेने पर तुले हैं ...
ख़ैर ,,, आज एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हो रहा हूँ ....





ग़ज़ल



रहता नहीं है दिल में वो मेहमान आजकल
मेरी तरह, है वो भी परेशान आजकल

ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल

सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल

तेरी निगाह- -मस्त के मुहताज हैं सभी
समझा , कि क्यों है मैकदा वीरान आजकल

वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल

माहौल पुरखतर है, कि बीमार ज़ेहन हैं
गुम है सभी के होटों से मुस्कान आजकल

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल




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तरक्क़ी-याफ्ता = उन्नत / विकसित मानव
निगाह--मस्त = मस्त आँखें
ज़ीस्त = ज़िन्दगी / जीवन
उनवान = शीर्षक / उद्देश्य
ज़ेहन = सोच / मानसिकता
अना = स्वाभिमान
मुआविज़ा = क़ीमत / वुसूली
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50 comments:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

तेरी निगाह-ए -मस्त के मुहताज हैं सभी
समझा, कि क्यों है मैकदा वीरान आजकल

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

क्या बात है ! बहुत खूबसूरत !

इस्मत ज़ैदी said...

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
क्या बात है!
ज़िंदगी बेहद मसरूफ़ हो चुकी है और हालात हमारी गिरफ़्त से बाहर होते जा रहे हैं

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल

ख़ूबसूरत मतले से इस ग़ज़ल का सफ़र शुरू हुआ और बेहद उम्दा मक़ते पर ख़त्म
ऐसे अश’आर बड़ी मेहनत करवाते हैं
बहुत ख़ूब !

इस्मत ज़ैदी said...
This comment has been removed by the author.
vijay kumar sappatti said...

sir ji

सलाम स्वीकार करे.. अब किस किस शेर कि तारीफ किया जाए ..

सब कोई एक से बढकर एक है .. बस यूँ ही लिखते जाईये ..

विजय

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल


बहुत खूबसूरत गज़ल ...

नीरज गोस्वामी said...

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल

तेरी निगाह-ए -मस्त के मुहताज हैं सभी
समझा , कि क्यों है मैकदा वीरान आजकल

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

गहरी बातें आसानी से कहने का हुनर कोई मुफलिस साहब से सीखे...जिस बात को कहने में हम जैसों को दिन महीने साल लगते हैं वो चुटकी बजाते कह जाते हैं...

इस बेहतरीन गज़ल के लिए मेरी दिली दाद कबूल करें.

नीरज

डॉ टी एस दराल said...

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल

माहौल में तल्ख़ी है या बीमार ज़ेहन हैं
गुम है सभी के होटों से मुस्कान आजकल

बेहद उदा ग़ज़ल के ये अशआर ऐसी सच्चाई बयाँ कर रहे हैं , जिससे सभी परेशां हैं ।
हमेशा की तरह बेहतरीन पेशकश ।

POOJA... said...

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
best lines...
हर बात तो सही लिह दी है आपने
पर इंसां सच से रुबरू कहाँ होना चाहता है आजकल...

स्वप्निल तिवारी said...

ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल

क्या बात है दानिश सर ..याद के फूल हैं ..तो महेकेगा ही आस पास अपना

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल

आह इस इतक्लीफ से गज़ल भी उदास है ..सच में हमारे अंदर की वो बातें कहाँ चली गयी हैं

वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल

और ये शेर .... सौ सौ सजदे ... इसे मैं ले कर जा रहा हूँ ...वो भी बिला इजाज़त ... हे हे ..छोटा हूँ ....माफ़ी तो मिल ही जायेगी .. हासिले ग़ज़ल शेर लगा ये मुझे ...

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

कल मैं मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल देख रहा था ..वही गुलज़ार चाचा वाला ..उसमे एक जगह ग़ालिब अंकल बहुत दुखी हो जाते हैं अंग्रेजों के व्यापार करने के तरीके से तो वो बोलते हैं 'ये कैसे कंपनी बहादुर आये हैं.... जमीन से जमीर तक...सब बिक रहा है'

मक़ता भी बहुत उम्दा लगा .. सच मच ..गुलज़ार साब का एक मिसरा है

' जिंदगी दे के भी नहीं चुकते
जिंदगी के जो क़र्ज़ देने हों'

जिंदगी का यह क़र्ज़ उसके चढ़ाये गए एहसानों का ही तो होता है ... आपकी ग़ज़ल बहुत पसंद आई

सादर
आतिश

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल
बहुत खूब, बेहतरीन शेर...
अपना ज़मीर, अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल
ये सच बयान किया है आपने
बहुत अच्छी ग़ज़ल है...
और हां, सरस्वती सुमन के संपादन की बधाई.

Ria Sharma said...

ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल

kuch esaa jaise mere hee alfaaz suna rahen hain mujhe aajkal ..

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आली जनाब दानिश साहब
आदाब ! नमस्कार !
बहुत शानदार ग़ज़ल लाए हैं ,
… हमेशा की तरह नायाब नगीना !
समझ से बाहर है किस शे'र को कोट न करूं , और क्यों न करूं ?
… लेकिन इस इम्तिहान से गुज़रना ही होगा

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल


वाह हुज़ूर ! जवाब नहीं आपका …

सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल


बहुत दुखती रगें छू रहे है आप …

और, मक़ते का तो क्या कहना साहब ! क्या कहना !!
मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल


… … …
… लेकिन,
वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल

… लगा कि कहीं यह शे'र मेरे लिए तो नहीं ?
आप कई दिनों से शस्वरं पर भी आए नहीं , और अपनी ब्लॉग लिस्ट में भी शस्वरं को शामिल नहीं किया …
…और हां, "सरस्वती-सुमन" के 'ग़ज़ल-विशेषांक' के लिए भी आपकी कोई सूचना मुझ तक नहीं पहुंची ।

:)
बुरा न मान जाइएगा …


शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

निर्मला कपिला said...

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल

सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल
हर एक शेर दिल को छूता हुआ। बुकमार्क कर लिया इसे दोबारा पढौऊँगी। शुभकामनायें।

दिगम्बर नासवा said...

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल ...

बहुत ही कमाल की ग़ज़ल है ... आपका तो हर शेर कुछ न कुछ हमेशा ही अलग कहता सा लगता है .. बहुत कुछ नया सीखने को मिलता है ...

उपेन्द्र नाथ said...

danish sahab, bahoot hi khoobsurat gazal likhi hai aapne..... appke blog se bahoot kuchh seekhne ko milega ............. aabhar

Kunwar Kusumesh said...

ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं से गुज़रती हुई आपकी ग़ज़ल मत्ले से मक्ते तक बेहतरीन लगी.
इस शेर के तो कहने ही क्या:-
अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

श्रद्धा जैन said...

सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल

waah waah..

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

bahut khoob

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
क्या बात है!
waah kamaal ka sach

वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल

bahut khoobsurat sher..

रूप said...

वो मेरी ज़िन्दगी से अचानक निकल गया
बदला हुआ है ज़ीस्त का उनवान आजकल
वाह दानिश भाई,
बहुत अच्छा है. "अचानक निकल गया"
का इस्तेमाल अनोखा इस्तेमाल है. वाह.

" इस जीस्त का उरूज़ है, जब भी मिले क़ज़ा
इस बीच जो भी कर, वही पहचान आजकल."
"रूप"

उस्ताद जी said...

7/10

उम्दा ग़ज़ल सामने आई है
कई शेर फौरी तौर पर असर डालते हैं
उनमें वजन है और सहेजने लायक हैं

Patali-The-Village said...

कमाल के शेर लिखे हैं?
बहुत खूबसूरत !

अनुपमा पाठक said...

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
waah! kitni sahajta se vikat sthiti darsha di aapne!!!
bahut sundar!

Amit Chandra said...

दानिश जी टिपण्णी करने के लिए शुक्रिया। इतनी सुन्दर गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद। पहल बार आना हुआ आपके ब्लाग पर। पर आना सफल रहा।

Amit Chandra said...

दानिश जी टिपण्णी करने के लिए शुक्रिया। इतनी सुन्दर गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद। पहल बार आना हुआ आपके ब्लाग पर। पर आना सफल रहा।

वीना श्रीवास्तव said...

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल..हर शेर दाद के काबिल...

हरकीरत ' हीर' said...

ग़ज़ल तो सुभानाल्लाह .....
सभी की तारीफ को मेरी ही समझें .....
ये शायद पहले कहीं छप चुकी है पढ़ी हुई लगी .....

adbiichaupaal said...

अपना ज़मीर, अपनी अना........ शेर अच्छा है. गजल में रवायत के इंजेक्शन जियादा लगे हैं, हकीकत से आँखें मिलाने का हौसला भी गजल में होना चाहिए.

सर्वत एम० said...

गजल अच्छी लगी. आपकी 'मुफलिसी' दूर होने और 'दानिश' हासिल होने के बाद शायद पहली बार आ सका हूँ. इधर नेट से दूरी बनी हुई है, कुछ अनमनापन है, शायद आपकी छूत लग गयी मुझे भी.

दर्पण साह said...

मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल
मुस्कुराएं तो मुस्कुराने के क़र्ज़ उतारने होंगे...

ManPreet Kaur said...

wah kya likha hai..bahut khoob...

mere blog par bhi sawagat hai..
Lyrics Mantra
thankyou

ManPreet Kaur said...

shukriya aapke comment ke liye or gaane sunne ke liye aapko blog ka link de raha hun..umeed hai aapko pasand ayega ..


Hindi Songs Music

Anonymous said...

bohot bohot khoobsurat ghazal kahi hai daanish ji.....kaunsa sher chuna jaaye...har misra laajawaab hai...bohot khoob !!!

manu said...

रहता नहीं है दिल में वो मेहमान आजकल
मेरी तरह, है वो भी परेशान आजकल...


जानलेवा शुरूआत की है हुज़ूर...

manu said...

मक्ता कमाल का है...
पर जाने हमें कब आदत पड़े इस नए नाम कि...

पहला ही नाम दिल पर ऐसे छप चुका है कि क्या बताएं.....

नए नाम की बधाई देने का भी मन नहीं कर rahaa...

लाल कलम said...

वाकई आप की गजलें तो मन मोह लेतीं हैं,
बहुत सुन्दर बहुत - बहुत बधाई

लाल कलम said...

वाकई आप की गजलें तो मन मोह लेतीं हैं,
बहुत सुन्दर बहुत - बहुत बधाई

'साहिल' said...

सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल

फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल


वाह! बढ़िया ग़ज़ल!

ManPreet Kaur said...

Merry Christmas
hope this christmas will bring happiness for you and your family.
Lyrics Mantra

VARUN GAGNEJA said...

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल
बहुत बड़ी और मामूली बात जिस सहज तरीके से कही गयी है............वो फन काबिले दाद तो है ही लेकिन शायर की नज़र जिस तरह से सामाजिक नैतिक अवमूल्यन को देख रही है वो काबिले दाद होने के साथ साथ काबिले परस्तिश भी है...... अब आपके के ही शब्द........मुबारकबाद कबूल फरमायें

Dr (Miss) Sharad Singh said...

उम्दा ग़ज़ल,बधाई!

Dorothy said...

क्रिसमस की शांति उल्लास और मेलप्रेम के
आशीषमय उजास से
आलोकित हो जीवन की हर दिशा
क्रिसमस के आनंद से सुवासित हो
जीवन का हर पथ.

आपको सपरिवार क्रिसमस की ढेरों शुभ कामनाएं

सादर
डोरोथी

केवल राम said...

भावपूर्ण गजल ..शुक्रिया

rajesh singh kshatri said...

बहुत ही सुंदर.

Rector Kathuria said...

सारी गज़ल ही सुंदर है...हर अशियार बहुत ही खूबसूरती से अपनी बात कह रहा है.....
फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल

तेरी निगाह-ए -मस्त के मुहताज हैं सभी
समझा , कि क्यों है मैकदा वीरान आजकल

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

मांगेगी ज़िन्दगी , तू यक़ीनन , मुआविज़ा
'दानिश' पे हो रहे हैं जो एहसान आजकल

shikha varshney said...

ख़ुशबू, गई रुतों की, धड़कती है आज भी
यूं भी महक रहा है ये सुनसान आजकल
kya baat hai ..bahut hi sundar.

Alpana Verma said...

सब से पहले तो ...."सरस्वती-सुमन" (देहरादून) के'ग़ज़ल-विशेषांक' के अथिति-सम्पादन का कार्य संभाला है...उसके लिए बधाई .....................
फ़ुर्सत कहाँ , कि ख़ुद से कोई बात कर सके
ये है ! तरक्क़ी-याफ़्ता इन्सान आजकल
--दो पंक्तियों में बहुत कुछ समेत लिया आप ने ..वाह!
..............
सच बोलते हो तुम , तो तुम्हे जानता है कौन
हर शख्स की है झूट से पहचान आजकल
--क्या बात है!सटीक...सच को झूट से मुंह छुपाना पड़ता है आजकल!झूट ही पहचान है .
........................

*****ग़ज़ल बेहद उम्दा लगी .*****
..............................
नववर्ष की शुभकामनाएँ

महेन्‍द्र वर्मा said...

danish ji]
bahut sundar ghazal hai.

नव वर्ष 2011
आपके एवं आपके परिवार के लिए
सुखकर, समृद्धिशाली एवं
मंगलकारी हो...
।।शुभकामनाएं।।

http://anusamvedna.blogspot.com said...

अपना ज़मीर , अपनी अना बेचने के बाद
हर काम होता जाता है आसान आजकल

लाजवाब...

http://anusamvedna.blogspot.com said...

बहतरीन गज़ल ...

Suman said...

yekse yek badhiya shair hai kiskis tarif kare ...

Amrita Tanmay said...

unvaan tak jaati gajal...