नमस्कार !!
कोई वक्त था कि
खतों कि बड़ी एहमियत हुआ करती थी ....ख़त लिखना , ख़त पढ़ना ,
ख़त का इंतज़ार करना सभी कुछ बहुत अच्छा लगता था ...
और वो ख़त..... जो मानिए आँख की सियाही से लिखे गए हों ...
आंखों में उभरते कतरों के साथ पढ़े गए हों ...
उन खतों की कैफ़ियत का अंदाज़ा तो आप को मालूम
ही होगा ....... खैर ! एक नज़्म आपकी खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ ।
वो ख़त
अभी अभी .......अचानक
दिल में इक एहसास ने अंगडाई ली
एक जाना-पहचाना ,
अपना-सा एहसास
यूँ लगा .....
जैसे
तेरा धुंधला सा कोई अक्स
तेरा खुशबु से भरा इक ख़याल
तेरे क़दमों की मखमली-सी इक आहट
तेरे हाथों की रेशम-सी इक छुअन
ये सब... .
मेरे ज़हनो-दिल को गुदगुदाते हुए
जैसे....
मुझे छू कर गुज़र गए हैं
हाँ ! याद आया !!
आज
तेरे उस ख़त को
देर तक पढ़ते-पढ़ते....
मैंने ....
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था
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29 comments:
भौचक रह गया अचंभित ... मगर कोई शक नहीं आपकी लेखनी में क्या दम है धीरे धीरे कागज पे उतर के सामने आरहा है ... उफ्फ्फ ऐसे जज्बात वो भी इतनी नाज़ुक ... जिसमे आपकी नज़र करीने वाली ... कमाल की अदायगी है साहिब ... सलाम आपको और आपके लेखनी को ...
अर्श
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था
ओये होए .....ये ख़त कब से आने लगे हजूर ....????
मनु जी आज तो मिट्ठू जान का राज खुल ही गया ...वो दिल्ली से आते वक़्त की तन्हाई ....मुबारकां जी मुबारकां ....ख़त कीं....ख़त भी छाप दिया होता... हम भी जरा आहत हो लेते (ख़ुशी तो होने से रही )
"तेरा खुशबु से भरा इक ख़याल "
बल्ले...बल्ले ....यहाँ तक आ रही है .....खुशबू नहीं ...जलने की बू .....!!
"तेरे हाथों की रेशम-सी इक छुअन"...अब तो जी बर्दास्त से बाहर है .....
खैर ....बुझे दिल से ही सही ....सुन्दर रचना की बधाई ....!!
तेरे उस ख़त को
देर तक पढ़ते-पढ़ते....
मैंने ....
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था
wah !
खैर ....बुझे दिल से ही सही ....सुन्दर रचना की बधाई ....!!
?????
??
?
ये सही है के इस छोटी सी नज़्म को हौले-हौले पढ़ते पढ़ते दिल कई बार बुझा भी...कई बार खिला भी..
जी आखिर कार कहाँ पे आ के ठहरा ( ये अभी सवेरे-सवेरे पता नहीं लग रहा है)
शायद मक्ते पर.....
जी हाँ ,
मक्ता सा ही लग रहा है हमें....
आज
तेरे उस ख़त को
देर तक पढ़ते-पढ़ते....
मैंने ....
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था
शायद देर तक पढ़ते पढ़ते आपकी ही पलकों पे रखा रह गया है,
ख़त के पास ही कहीं
"तेरे उस ख़त को
देर तक पढ़ते-पढ़ते....
मैंने ....
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था
"
koi ghazal,koi sher, koi nazm nahi...
...koi kavita se zayada to ye tera naam mukamill hai. Jo kabhi maine apni 'thaki palkon' se giraya tha aasoon ki manind us kore kagaz main, wo kora kahan raha ab.
Wahi khat tumko bhej diya...
.......Us tumahare khat ke zawab main, priye.
ये नज़्म तो सचमुच दिल को गुदगुदा गई. आप कितना अच्छा लिखते हैं, ये अहसास धीरे धीरे हो रहा है. वैसे, ख़त आजकल अपेंडिक्स की तरह एक वेस्तिजीअल ओरगन बन कर रह गए हैं.
waah waah......khaton ki jubaan kitni gahan hoti hai .........ye aapne sabit kar diya.
oh. palkon par rakhe khat ne kya kamaaldikha diya hai, wah. karishmai lekhan. badhai.
मुफ़लिस जी ...
अब कहाँ ख़त लिखने वाले और कहाँ पढने वाले .....आपकी लेखनी को खूबसूरत अहसासों से भरी स्याही में डुबोकर रची है आपने ये रचना !!
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था (Wah !! )
saadar !!
कमाल की लेखन-शैली.. अच्छी प्रस्तुति....बधाई...
ये...... क्या हुआ ?
कैसे हुआ ?
कब हुआ ?
क्यूँ हुआ ?
जब हुआ ..
तब हुआ...
जो भी हुआ..
बस कमाल हुआ...
एक महकती सी नज़्म...
beautiful!!
us pyaar aur sukoon ka phir se ehsaaa hua.
wahhhhh
thaki maandi palkon par rakh chora tha
kya baat hai last line mein seedhe nazm ka saar kah diya
man jhoom utha
वाह भाई बड़ी प्यारी नज़्म कह गए आप..बहुत खूब
bhut khubsurat najm .
भाई, प्यार और एहसासात की इतनी सारी दौलत ज़खीरा समेटे बैठे है आप फिर भी खुद को 'मुफलिस' कहते हैं. आप के लिय तो' अमीर' या 'कुबेर' जैसे तखल्लुस की जरूरत है. बहुत कामयाब नज़्मa है. होनी भी चाहिए क्योंकि इस में 'व्यक्तिगत अनुभव' जो शामिल हैं. मैं इस दौलत से महरूम हूँ. मेरी रचनाओं में भी इनका अभाव झलकता है. फ़िलहाल मुबारकबाद कबूल फरमाएं और 'उस' के लिए इतना ही कहें.....
एक हमशक्ल तेरी याद दिला जाता है
मेरे जैसा भी कोई तेरे उधर है कि नहीं !
तेरे उस ख़त को
देर तक पढ़ते-पढ़ते....
मैंने ....
अपनी थकी-मांदी
पलकों पर रख छोड़ा था ...behad khoobsurat khat....
kya khub....mubarqbaad kubul karen.....
"उन खतों की कैफ़ियत का अंदाज़ा तो आप को मालूम ही होगा...."
जिन्हें न भी मालूम होगा, इस नज़्म को पढ़ लेने के बाद तो अनजाना न रह पायेगा उस कैफ़ियत से!!!
एक अप्रतिम रचना....
किंतु आपकी ग़ज़ल के लिये बेकरार हैं, हुज़ूर!
main kya kahun , nishabd hoo sir ji ... aapki is kavita me to jaane kya kya chipa hua hai ..khato ki ek zindagi hoti hai ....aapko salaam ..
MUFLIS जी .......... आपसे बात कर के बहुत अच्छा लगा उस दिन ......... लगा किसी अपने अपने से ही बात कर रहा हूँ ........ आपकी NAZM पढ़ कर SPEACHLESS हो गया हूँ SIR .......... मन को CHOO गयी है
nice writing
nice
जनाब ये रेशमी एहसास आप की कलम से ही बयां हो सकता था...और किसी की कलम में ये ताब कहाँ...बेहद खूबसूरत नज़्म...पढ़ कर देर तक खामोश कर देने वाली...सुभान अल्लाह...
नीरज
प्रशंसा में लोग इतना कुछ कह गए कि अब मैं कुछ कहूं तो लगेगा शब्द चोरी के हैं , भाव चोरी के हैं, कापी राइट का उल्लंघन होगा.
बेहतरीन नज़्म पर दिल से बधाई................
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
अबये जाना नाम क्यों रक्खा है मुफलिस्
छीनकर दौलत कोई ले जा न पाये.
वाह!वाह!वाह!
ब्लॉगर "अर्श" ने कहा…
भौचक रह गया अचंभित ... मगर कोई शक नहीं आपकी लेखनी में क्या दम है धीरे धीरे कागज पे उतर के सामने आरहा है ... उफ्फ्फ ऐसे जज्बात वो भी इतनी नाज़ुक ... जिसमे आपकी नज़र करीने वाली ... कमाल की अदायगी है साहिब ... सलाम आपको और आपके लेखनी को ...bas yahi baat main bhi kah rahaa hun........arsh saahab....mujhe muaaf karen....magar main to bhoot hoon naa....!!
kitne bars intzaar ki aapke khat ki abto roz hi iss khat ko parha kareinge hum....wah aisa khat..kya kamaal hai....bahut achha likhte ho muflis ji aap.
...aapke agle khat ki intzaar mein hoon mai
खूबसूरत ... और क्या कहूं..चंद अशआर याद आ गए ...
मुझे यकीन है के तुमने पढ़ लिया होगा वो ख़त जो मैंने अभी तक तुम्हे लिखा ही नहीं ...
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