ज़िन्दगी जुर्म सही, जब्र सही, ग़म ही सही ...
जाने क्यूं आज सुमन कल्यानपुर का गाया ये गीत
अचानक ज़बाँ पर आ गया...आप सब ने भी सुना ही होगा
बस यूं ही सांझा करने को जी चाहा .....
एक नज़्म-नुमा कुछ ताना-बाना-सा हुआ है
आप मेहरबान दोस्तों को आदत तो है ही ...सह लेने की ....
सो...क़ुबूल फरमाईये
आज फिर
आज
आज फिर...
वो अपने आप-सा
उदास-सा दिखा
आज फिर
कुछ भी तो
अपनी तरह से न हो पाने पर...
वो झुंझलाया
आज फिर
अपने अकेलेपन के एहसास से झगड़ते हुए
हालात की तल्ख़ी से हार कर ...
वो कसमसाया
आज फिर
माहौल के खालीपन को गले लगा
ख़ुद से बात करने की कोशिश में
अचानक
वो उठा...
अपनी पलकों के कोनों पर उभर आये
चन्द क़तरों को दर्पण में निहारा
और....
हँस दिया .....
...................
आज फिर ....
31 comments:
जनाब मुफ़लिस साहब, आदाब
वो अपने आप-सा....उदास-सा दिखा...आज फिर...
कुछ भी तो...अपनी तरह से न हो पाने पर...
वो झुंझलाया...आज फिर
....अपनी पलकों के कोनों पर उभर आये
चन्द क़तरों को दर्पण में निहारा
और....हँस दिया .....आज फिर ....
क्या खूब कहा है, जनाब
मुबारकबाद
bahut khoob muflis ji, kya khoob dard ko abhivyakt kiya hai................lajawaab.
वाह मुफलिस जी , एकाकीपन के दर्द को इतनी खूबसूरती से पेश किया है की आखों में आंसू आने को मुश्किल से रोक पाए हैं।
रिश्तों पर एक मासूम सा सवाल हमने भी उठाया है , वैलेंटाइन डे पर।
muflis saheb... kya kahun aapne nitaant ekaant ke kshano ko itne behatar dhang se darshaaya hai ki , kuch kah nahi paa raha hoon.. hum sab kisi na kisi format akele hote hai ..
कितने सरल शब्दों में इतनी गहरी बातें कह देते हैं आप.
हर दिल यहाँ बेताब है मालूम नहीं क्यूँ..
हर आँख में सैलाब है मालूम नहीं क्यूँ...
Beautifulllllll.....
आज फिर
कुछ भी तो अपनी तरह से न हो पाने पर...
वो झुंझलाया ..
अपनी मर्ज़ी कहाँ अपने सफ़र के हम हैं .... बस यूँ ही आपकी नज़्म पढ़ कर गुनगुना बैठा ...... सच है अपनी मर्ज़ी से कुछ भी नही कर पाता इंसान .... बस आदतन झुंझला ही सकता है ... बहुत अच्छा मुफ़लिस जी .... लंबे समय बाद आप कुछ लिखते हैं पर बहुत ही लाजवाब ... कमाल का लिखते हैं ....
उदास-सा दिखा
आज फिर
कुछ भी तो
अपनी तरह से न हो पाने पर...
वो झुंझलाया
आज फिर
अपने अकेलेपन के एहसास से झगड़ते हुए
हालात की तल्ख़ी से हार कर ...
.........
bahut hi badhiyaa,dil ke kareeb
मेरी तन्हाइयो तुम ही लगा लो मुझको सीने से
के मैं घबरा गया हूँ इस तरह रो-रो के जीने से
main, mere ahsaas aur meri tanhaiyan
aur kya chahiye jeene ke liye
is soch ko bakhubi ubhara hai......dil ko chhoo gayi.
मैं तो निशब्द हूँ------ पता नही क्यों ----होता है कई बार ऐसे--- शुभकामनायें
सुंदर.
जज़्बात को अलफ़ाज़ का जामा पहना कर नज़रों के सामने ला खड़ा किया है आप ने ,इंसान की ख़ुद से जंग aur फिर हालात को वैसे ही क़ुबूल करने की मजबूरी , बहुत खूब
nice
अपने आप से बातें करना , अपने आप को पहचानना, ...खुद से मिलकर बातें करना अच्छा लगता है...
अति सुन्दर
मैं शायद खुद को पढ़ रहा था....
आभार
अर्श
मुफ़लिस साहब, एक आम आदमी की परेशानी, उसकी व्यथा और उसकी मानसिकता को इतनी खूबसूरती के साथ उकेरा है आपने कि शब्द-श्ब्द जीवन्त हो उठे हैं.बधाई.
'ज़िन्दगी जुर्म सही,
जब्र सही, ग़म ही सही ,
दिल की फरियाद सही ,
रूह का मातम ही सही..'
कितना खूबसूरत भूला बिसरा सा एक गीत याद दिला दिया.
-दिल की आह से जन्मी यह नज़्म आँखों में नमी और होठों पर मुस्कान लिए चलने वाले का दर्द बखूबी बयान कर रही है.
आज फिर दिल ने कुछ तमन्ना की
आज फिर दिल को हमने समझाया...
आज फिर
माहौल के खालीपन को गले लगा
ख़ुद से बात करने की कोशिश में
Nice vision cogra---
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! बढ़िया लगा!
sundar rachna
abhar....
मुफ़लिस साहब
....अपनी पलकों के कोनों पर उभर आये
चन्द क़तरों को दर्पण में निहारा
और....हँस दिया .....आज फिर ....
क्या खूब कहा है
मुबारकबाद
क्या कह दिया? मेरे पास तो शब्द ही नहीं रह गए कुछ कहने को. आप अपना तखल्लुस बदलें. ये मुफलिस के जज्बात हो ही नहीं सकते. ये तो बेहद मालदार शख्सियत के ख़यालात हैं. पैसों से नहीं, फ़िक्र और शऊर से मालामाल शख्सियत.
मैं इधर मसरूफ हूँ, कुछ ज्यादा ही. किसी ब्लॉग पर जाने की हैसियत ही नहीं बन रही है. आपने भी राबता बंद कर रखा है. शायद मसरूफियत आप को भी घेरे हुए है.
इतना अच्छा लिख रहे हैं आप, मुझे अपना लिखना बंद करना जायज़ लग रहा है.
ek baar phir yahaan aakar badaa mazaa aaya.....har ik harf ne dil ko badaa lubhaya...!!
हर दिल यहाँ बेताब है मालूम नहीं क्यूँ..
हर आँख में सैलाब है मालूम नहीं क्यूँ...
आपको व आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
मुफलिस जी बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आई और आना वसूल हुआ ।
आज फिर
वो अपने आप-सा....उदास-सा दिखा...
आज फिर...
कुछ भी तो...अपनी तरह से न हो पाने पर...
वो झुंझलाया...आज फिर....
बेहद खूबसूरत रचना । अकेलेपन के और असफलता के दर्द को उभारती हुई ।
लेकिन कोई कोई दिन ऐसा भी होता है जब सब कुछ आपके मन माफिक होता चला जाता है वो बी आपके बिना कोशिश किये, कम होता है पर होता तो है ।
Muflis ji,
bahut hi saral bhasha mein bahut hi gahri baat kahne ki kala aapko aati hai..
bahut hi sundar rachna..
aabhar..
आपकी कविता..
हरकीरत जी का शे'र..
मेज़र साब का गीत...सब मिलकर एक बेचैनी सी पैदा कर रहे हैं...हजल पढ़कर निचे आये है तो सारी मस्ती हवा हो चुकी है...
Post a Comment