Saturday, February 19, 2011

पिछले दिनों आदरणीय श्री पंकज सुबीर जी केब्लॉग पर
एक तरही मिसरा मश्क़ के लिये दिया गया था,,
"नए साल में नए गुल खिलें, नयी खुशबुएँ नए रंग हों"
मिसरा अपने आप में बहुत अनूठा रहा, मन में समा जाने वाला..

इसी मिसरे को लेकर
कुछ शेर हो गये हैं
जो आप सब की खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ.......





ग़ज़ल


हों बुझे-बुझे, कि खिले-खिले, वो बने रहें, या कि भंग हों
तेरी सोच के सभी सिलसिले, तेरे अपने मन की तरंग हों


तेरी ज़िंदगी, हो वो ज़िंदगी, जो किसी के काम भी सके
तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग
हों

है पड़ोसी वो, तो भले पड़ोसी का फ़र्ज़ भो तो निभाए वो
करे कुछ ऐसी वो हरक़तें, जो हमेशा बाईस--जंग हों


यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , उसूल कोई, ढंग
हों

यूँ फ़रोग़--इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल
यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, रदीफ़--क़ाफ़िये तंग हों

मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों

चलो 'दानिश'
अब ये दुआ करें , हों सभी दिलों में ये ख्वाहिशें
हो कोई भी दुःख, सभी साथ हों, हो कोई ख़ुशी, सभी संग हों


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प्रसंग=चर्चे/वार्तालाप
बाईस--जंग=युद्ध/झगड़े का कारण
फरोग--इल्म=ज्ञान वृद्धि/विद्या प्रसार

रदीफ़--क़ाफिये=ग़ज़ल की व्याकरण से सम्बंधित घटक
(तुकांत इत्यादि)
अनंग=देह रहित/बिना श़क्ल
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38 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

तेरी ज़िंदगी, हो वो ज़िंदगी, जो किसी के काम भी आ सके
तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग हों
अरे वाह! ये तो कमाल का हिन्दी-उर्दू मिलन है! सुन्दर ग़ज़ल. ग़ज़ल पर बहुत कुछ कहने लायक़ नहीं हूं मैं.

इस्मत ज़ैदी said...

मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों

बहुत ख़ूब !
नयापन लिये हुए बहुत सुंदर पंक्तियां


यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों
हक़ीक़त का बेहतरीन इज़हार करता हुआ शेर

ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये मुबारकबाद क़ुबूल करें

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों

अच्छा प्रहार है आज कि सोच पर ...

बहुत खूबसूरत गज़ल

devendra gautam said...

यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों
....बहुत खूब दानिश भाई!

योगेन्द्र मौदगिल said...

wahwa....badiya sher nikale hain aapne....sadhuwad..

Patali-The-Village said...

बहुत खूबसूरत गज़ल|

निर्मला कपिला said...

यूँ फ़रोग़-ए-इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल
यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, न रदीफ़-ओ-क़ाफ़िये तंग हों

मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों
वाह लाजवाब प्रयोग अनंग ,न रदीफ़-ओ-क़ाफ़िये तंग हों का। । एक से एक बढ कर शेर हैं। दूसरा शेर भी लाजवाब है। बहुत बहुत बधाई इस गज़ल के लिये।

दिगम्बर नासवा said...

यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों ...

दानिश जी आपकी ग़ज़ल में गज़ब की ताजगी है ... एक महम है जो बस महसूस की जा सकती है ...
बहुत लाजवाब लिखते हैं आप ....

Anonymous said...

kya khoob mix kiya hai hindi aur urdoo ko, bohot kamaal ki ghazal..... :)

Anonymous said...

kya khoob mix kiya hai hindi aur urdu ko....bohot khoobsurat ghazal :)

VARUN GAGNEJA said...

ganga jamuni tehzeeb mein rachna kushalta ke liye badhai svikaar karein. har she'r apne aap mein ek muqammal dastaan hai. 'daanish' waqai 'muflis' par bhaari hai

Kunwar Kusumesh said...

यही चाहते हैं सब आजकल,है हवा जिधर की,उधरचलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई न ढंग हों

जी हाँ, सब यही तो चाहते हैं.सच्चाई बयान करता हुआ बढ़िया शेर है.ग़ज़ल भी उम्दा है

vijay kumar sappatti said...

ustaad ji , aakhri line sirf aur sirf aap hi likh sakte ho huzoor......

Badhayi

-----------

मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
"""" इस कविता का लिंक है ::::

http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

विजय

manu said...

यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों.....

क्या हकीकत बयान की है साहब...

यूँ फ़रोग़-ए-इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल
यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, न रदीफ़-ओ-क़ाफ़िये तंग हों

आमीईईईईईन................!!!!!!!

मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों


इस शे'र के साकार होने की जाने कितने वक़्त से राह देख रहे हैं हम...


एक नए ढंग की ग़ज़ल ...खूबसूरत शब्दों का मनमोहक प्रयोग..

Anonymous said...

हों बुझे-बुझे, कि खिले-खिले, वो बने रहें, या कि भंग हों
तेरी सोच के सभी सिलसिले, तेरे अपने मन की तरंग हों

Ek bahut hi sundar rachna. SHabd aur bhawon ka anupam sangam.
Dil ko chhu gayi Daanish ji apki ye rachna.

--Mayank

हरकीरत ' हीर' said...

तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग हों

ये आपके लिए .......

महेन्‍द्र वर्मा said...

तेरी ज़िंदगी, हो वो ज़िंदगी, जो किसी के काम भी आ सके
तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग हों

गंगा-जमुनी भाषा के प्रयोग से ग़ज़ल की सुंदरता में इज़ाफा हुआ है।

हर शे‘र पाठक से मुखातिब है, कुछ कह रहा है।

रचना दीक्षित said...

चलो 'दानिश' अब ये दुआ करें , हों सभी दिलों में ये ख्वाहिशें
हो कोई भी दुःख, सभी साथ हों, हो कोई ख़ुशी, सभी संग हों

गज़ब की ख्वाहिश और दुआ. हमारी भी इल्तिजा की आप ऐसे ही बढ़िया ग़ज़लों से रूबरू कराते रहें. शुक्रिया.

उम्मतें said...

बहुत खूब !


एक ख्याल ये कि अगर मिसरा = मिश्रा हो तो ...
उनके मिश्रा को पांडित्य से भर दिया आपने :)

DR. ANWER JAMAL said...
This comment has been removed by the author.
DR. ANWER JAMAL said...

@ जनाब दानिश साहब ! आपके लेख को देखा तो अच्छा लगा और दिल चाहा कि आप इतनी प्यारी रचनाओं को फोरम के पाठकों को भी पढ़वाएं ।

एक आमंत्रण सबके लिए
क्या आप हिंदी ब्लागर्स फोरम इंटरनेशनल के सदस्य बनना पसंद फ़रमाएंगे ?
अगर हॉ तो अपनी email ID भेज दीजिए ।
eshvani@gmail.com
धन्यवाद !

Asha Joglekar said...

दानिश जी, संस्कृत और उर्दू को मिलाकर क्या खूबसूरत गज़ल की सृष्टि की है आपने ।
मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे
मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों
ये शेर तो बहुत ही अच्छा लगा ।

नीरज गोस्वामी said...

यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों

वाह जनाब वाह...कितनी सच्ची बात कही है आपने...इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल करें...

नीरज

अरुण चन्द्र रॉय said...

दानिश साहब पहलीबार आपके ब्लॉग पर आना हुआ.. बहुत खूबसूरत लिखते हैं आप.. ग़ज़ल के बारे में कुछ भी नहीं पाता बस जो दिल को छू जाये वही ग़ज़ल... यह शेर दिल में बस गया..
"यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों""

विशाल said...

यही चाहते हैं सब आजकल , है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे , न उसूल कोई, न ढंग हों

दिल की बात कह दी दानिश साहिब आपने तो.
बहुत उम्दा ग़ज़ल.
सलाम.

Shalini kaushik said...

bahut sundar bhvabhivyakti.

गौतम राजऋषि said...

जब मैं इस तरही की उलझी बहर के साथ माथा-पच्ची कर रहा था और फिर बाद में पूरे तरही-मुशायरे पे आपके लगातार कमेंट पढ़ र्हा था तभी मन में ख्याल आया था कि इस जमीन पर दानिश साब जो कहते ग़ज़ल तो मजा आ जाता...और मजा आ गया! वल्ल्लाहssssss...तभी तो कहते हैं कि उस्ताद आखिर उस्ताद ही होता है।

हिंदी के चंद अनूठे शब्द कि इस बहर पे बिठा कर आपने हमें नत-मस्तक कर दिया है गुरूवर! और ये शेर "यूँ फ़रोग़-ए-इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल/यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, न रदीफ़-ओ-क़ाफ़िये तंग हो" तो हम जैसे तमा नौसिखिये शायरों का दर्द समेटे हुये है।

और इस शेर "मेरे स्वप्न शिल्प में जब ढलें , मेरा शब्द-शब्द सृजन रचे/मिले कल्पना को इक आकृति, भले भाव मन के अनंग हों" पर जितनी दाद दी जाए कम होगी....

मजा आ गया सर पूरी ग़ज़ल....सुबह बन गयी हमारी...दिन बन गया हमारा!!

Shabad shabad said...

खूबसूरत गज़ल...लाजवाब लिखते हों आप ...


.....है हवा जिधर की, उधर चलो
न तो ज़िंदगी में हों क़ायदे ,
न उसूल कोई, न ढंग हों ...
कमाल ही कमाल !

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

नयापन लिये ख़ूबसूरत ग़ज़ल... बहुत बधाई...

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

बाऊ जी,
नमस्ते!
खालिस उर्दू और क्लिष्ट हिंदी को आपने यूँ मिलाया है जैसे ये कभी अलग थी ही नहीं!
आप तो बस आप हैं!
आशीष

Avinash Chandra said...

किसी एक शेर को चुनना मेरे लिए मुनासिब नहीं होगा|
सभी के सभी बेहतरीन हैं|

Dr Varsha Singh said...

यूँ फ़रोग़-ए-इल्म के वास्ते, जो कभी भी कोई कहे ग़ज़ल
यही इल्तेजा है मेरे ख़ुदा, न रदीफ़-ओ-क़ाफ़िये तंग हों

बहुत खूब...बहुत खूब....

Asha Joglekar said...

इस नये साल की कामना ने दी है वह खुशी हमें,
हम झूम उठे ऐसे कि गोया जन्मदिन का प्रसंग हो ।

भाषाओं का खूबसूरत मिलन लिये हुए बढिया गज़ल ।

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan said...

"तेरी ज़िंदगी, हो वो ज़िंदगी, जो किसी के काम भी आ सके
तू बने, तो ऐसा उदाहरण , चहुँ ओर तेरे प्रसंग हों"- बहुत सुन्दर भाव हैं आपके. बधाई स्वीकारें - अवनीश सिंह चौहान

Parasmani said...

ये भी पसंद है मगर इस से पहेले वाली...

"शिकायत भी, तकल्लुफ़ भी, बहाना भी"...बेहतरीन रही.

Arun said...

Kisko dekhiye, ki kisko dekhti hai badhawas yeh nazar
Jis bhi simat jaati hai, tujhko dhundhti hai nazar
Isi nazar ki wajah se nahin bhul paate hein woh nazar
Nazar se nazar milli thi ek baar phir na nazar aayee woh nazar

Lagta hai mujhe Arse baad fursat milli hai. Apki rachnayein humesha man chhooti hein..

Prof.kamala Astro-Fengshui Vastu and Metaphysics said...

daanish aap ki poetry vaqt ke saath hai isme koi shak nahi. aap se contact kaise ho sakta hai?

Amrita Tanmay said...

bahut khub